Tuesday, July 6, 2010

भारत की देशज पत्रकारिता में कीचड़ होली..

धौनी की शादी को लेकर सारी मीडिया बेचैन रही. धौनी ने उसे नहीं बुलाया, इसे नहीं बुलाया वगैरह-वगैरह. मीडिया के लिए किसी भी बड़े आदमी की शादी एक खबर होती है. पेज पर पेज रंग दिए गए. वैसे पत्रकार से इतर एक आम आदमी से पूछ कर देखिये कि क्या उसे धौनी की शादी से कोई मतलब है, साफ पता चल जाएगा नहीं. किसी आदमी की इंडिविजुआलिटी को खत्म करने की बेकरारी जितनी मीडिया को होती है, उसने मीडिया की इज्जत कठघरे में डाल दिया है.

मीडिया के लोग किसी की व्यक्तिगत जिंदगी में इस कदर ताक-झांक करते हैं कि संबंधित लोग मीडिया से दूर भागते हैं. इलेक्ट्रानिक मीडिया में हर पल को परोसने की बेकरारी जिस कदर सवार रहती है, उसमें एक तरह का दीवानापन नजर आता है. इस दीवानगी से हो सकता है कि कुछ देर के लिए टीआरपी बढ़ भी जाए, लेकिन चैनलों की विश्वनसनीयता को चोट तो पहुंचती ही है. बाजार ही सबकुछ बनाती है. वही हर चीज का निर्धारण करती है.

 सानिया मिर्जा के समय में भी दंतेवाड़ा को इंग्नोर करके सानिया एपिसोड का २४ घंटे तक लगातार प्रसारण किया जा रहा था. आखिर आम आदमी से दूर होती है ये तथाकथित पत्रकारिता कॉरपोरेट की किस परिभाषा की व्याख्या करती है. जहां तक कॉरपोरेट की बात है, तो उसके उत्पाद का ७० फीसदी हिस्सा उन्हीं कस्बों, छोटे शहरों और गांवों में खपता है, जिसे दिल्ली की पत्रकारिता इग्नोर करती है. सही मायने में कहें, तो राष्ट्रीय पत्रकारिता का मामला दिल्ली के कुछ चैनल और अंगरेजी अखबारों में छपी चुनिंदा खबरें ही होती हैं.

 पत्रकारिता में भी हर एरिया को पकड़ने की गरज में क्षेत्रीय संस्करण नेशनल के इतर शुरू किए जा रहे हैं. लेकिन ये किसी अखबार या चैनल के पूरे स्वरूप को घटियापन की ओर उन्मुख कर रहे हैं. उनमें वो ताकत नहीं रहती है कि वे सत्ता परिवर्तन कर सकें या भ्रष्टाचार या अव्यवस्था के खिलाफ किसी तरह का उबाल पैदा कर सकें. हमारे जैसे छोटे  से लेकर बड़े पत्रकार तक बेचैन हैं, लेकिन वे कुछ नहीं कर सकते हैं. क्योंकि उसी कॉरपोरेट व्यवस्था के वे हिस्से हैं, जिनसे रोजी-रोटी आती है. इसलिए जब धौनी की शादी के समय स्टुडियो में ही शादी के मंत्रोच्चारण के साथ उत्तराखंडी डांस का मनमोहक प्रदर्शन किया जा रहा था, तो वो बता जा रहा था कि चैनलवाले उसी सर्कस की नौटंकी का हिस्साभर बन गए हैं, जो ५०-१०० रुपए लेकर तीन घंटे का शो प्रस्तुत करता है.

इसलिए अब अगर घरों में चैनलों की जगह सिर्फ सीरियल ही  देखे जा रहे हैं, तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए. वहां भी तो वही मसाला मिलेगा, जैसा मसाला यहां मिलेगा. हिन्दी के नेशनल अखबारों की वेबसाइट्स की हेडिंग पर कोई पढ़ा-लिखा आदमी जाना नहीं चाहेगा, क्योंकि वहां उसे शर्मिंदगी के सिवाय कुछ मिलनेवाला नहीं है. भारत की देशज पत्रकारिता में  सिवाय कीचड़ में होली खेलवने के सिवाय कुछ नहीं दिखती है. जंग जारी है.

2 comments:

Arun sathi said...

घिन्न आती है यह सब देख सुन कर. मेरे जितने दोस्त थे दो दिन किसी ने न्यूज चैनल नही लगाया. धोनी की नौटंकी के कारन.

प्रवीण पाण्डेय said...

नौटंकी बना रखी है मीडिया ने, पते का समाचार तो दिखाते ही नहीं ।

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