Wednesday, July 21, 2010

दीदी आप बंगाल की राजनीति संभालें.

रेलवे हादसे के बाद अखबार के पन्ने पर सुपौल की महिला की रोती तस्वीर छापी. उसका कोई चला गया था. किसी का बेटा खो गया, तो किसी का दामाद. किसी के पिता चल बसे, तो किसी की माता. इतने हादसों के बाद तीन-चार दिन की बहस के बाद फिर से रूटीन वर्क चालू हो गया.  वनांचल की उन अभागी बोगियों में सवार होने से पहले लोगों ने जरूर भगवान से सकुशल यात्रा के लिए आशीर्वाद मांगे होंगे. लेकिन उनका वह प्रयास सिफर रहा. कभी-कभी लगता है कि हमारे से अच्छा अंगरेजों का राज था. फर्क यही था कि वे दूसरे देश के थे. हमारे ऊपर उनका शासन हमें चुभता था. आज हमारा अपना शासन है. लेकिन हमारे शासक कौन सी बेहतर प्रणाली का निर्माण कर रहे हैं. जिस देश का शासन तंत्र इतना खोखला हो कि उसके नेता हर हादसे और हर हमले पर महज बयानबाजी करें, वहां पर भरोसा नामक शब्द की अहमियत खत्म हो जाती है. एक मौत से पूरा रपरिवार टूट जाता है. अगर देखना हो, तो मुंबई हमले में मारे गए परिवारों का हाल जानकर देख लें. एक गोली या एक हादसा जानें तो ले लेती हैं, लकिन व्यक्ति के रूप में जिस संपत्ति को ये देश गंवा रहा है, उसका मूल्यांकन कौन करेगा. अगर थोड़े आंकड़े के लिहाज से ही देखे, तो हमने नक्सली हमलों में जितने जवान गंवा दिए हैं, उससे तीन-चार शहर की विधि व्यवस्था संभाली जा सकती थी. हमारे शासक  देश की बड़ी आबादी के लिहाज से लगता है संतुष्ट हो गए हैं. इसलिए ही वे व्यवस्था की मजबूती के लिए वैसा कोई ठोस कदम नहीं उठाना चाहते. रेल मंत्रालय आज मंत्रियों के हाथों का खिलौना बन चुका है. दिन प्रतिदिन दबाव बढ़ रहा है. लाखों नियुक्तियां की जानी हैं, लेकिन उसके हिसाब से कोई नयी नियुक्तियां नहीं हो रही हैं. अगर परीक्षाएं होती हैं, तो सौ झमेले हैं. ये फेल होते जा रहे सिस्टम की निशानी है. सारी बातों को जानने के बाद ममता से यही आग्रह करने की इच्छा होती है, दीदी आप बंगाल की राजनीति संभालें. रेलवे को दूसरे की जिम्मेवारी पर सौंप दें. इतनी मौतों के बाद अब असंवेदनशील होने के नाटक करने का दम खत्म हो रहा है.

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