समय सरपट भागता जाता है. किसी के लिए नहीं रुकता. इस पर किसी का बस भी नहीं. पांच अगस्त के अखबार में खबर देखी कि मुगल-ए-आजम के ५० साल पूरे होने की खबर देखी. किसी और फिल्म की बात होती, तो मटिया देता. मन नहीं करता. पन्ने पलट देता. लेकिन मुगल-ए-आजम के किरदार जेहन में कैद हैं. उन्हें हम या आप मिटा नहीं सकते. मधुबाला के शीशमहल में प्यार किया तो डरना नहीं का नृत्य न जाने कितने प्रेमियों के हौसले बुलंद करता रहा.
डायलॉग, अदा, नजाकत या अंदाजे बयां, हर मामले में मुगल-ए-आजम हिट है. हम ज्यादातर फिल्मों की तरह इसे नकार नहीं सकते. आखिर ये क्लासिक कैसे बना ये जानना जरूरी हो गया.जानकारी के लिए नेट के पन्नों को ही खंगाला. खुद ज्यादा जानकार नहीं हूं. जितना जाना, उस हिसाब से इसकी कहानी के आसिफ के सपनों से शुरू होती है. के आसिफ ने इस फिल्म को बनाने का सपना देखा. १९४४ में नरगिस, चंद्रमोहन और सप्रू के साथ फिल्म बनाने की कोशिश की. लेकिन फिल्म के राजनीतिक तनावों की वजह से प्लानिंग फ्लाप रही. फिर बाद में शिराज के पाकिस्तान चले जाने के बाद शपूरजी पलोनजी के रूप में उन्होंने फिनांसर पाया और उनकी फिल्म शुरू हुई. पृथ्वीराज कपूर, दिलीप कुमार, मधु बाला, अजीत और दुर्गा खोटे को लेकर उनका फिल्मी अभियान शुरू हुआ.
फिल्म को बनाने में लगे नौ साल. लता की स्वरलहरी और नौशाद के संगीत ने फिल्म में जादू सा कर दिया. प्यार किया तो डरना क्या को शीश महल में फिल्माया गया. २००४ में कलर वर्जन ने भी धूम मचायी थी. दिलीप कुमार और पृथ्वी राज कपूर के रूप में सलीम और बादशाह अकबर का किरदार असर डालता है.
मुगल-ए-आजम की सफलता इस तरह रही कि उसने आम आदमी की जिंदगी पर असर डाला. साहित्य, संवाद या एडवर्टाइजमेंट्स में इसके किरदान छाए रहे. उनकी नकल करते लोग खुद तो गर्व महसूस करते रहे. क्लासिक का दर्जा पा चुके इस फिल्म ने धारा को उलटने में मुख्य भूमिका निभायी. इसमें सैनिकों के किरदार के लिए सेना की मदद ली गयी थी. सेना के जयपुर रेजिमेंट ने जवान उपलब्ध कराए थे.
मुगल-ए-आजम देखने के बाद और कुछ हो न हो, आदमी की इतिहास में दिलचस्पी हो जाती है. आदमी न चाहकर भी इतिहास पढ़ना चाहेगा. आसिफ साहब को हम लोगों को शुक्रिया अदा करना चाहिए कि उन्होंने अतीत के पन्नों को खंगालने का एक बहाना दे दिया. इसी बहाने हम लोग भी कुछ न कुछ जानकारी जरूर खंगाल लेते हैं. वैसे जब आज के फिल्मकार बिना समय दिए या शोध किए फिल्म बनाते हैं, तो उनसे के आसिफ से सीख लेने की गुजारिश होती है. आखिर आज के फिल्मकार इतना समय क्यों नहीं देते.वे क्लासिक नहीं बना पाते. किसी को गाली देना मकसद नहीं, लेकिन कहीं न कहीं तो कमी है.
Friday, August 6, 2010
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2 comments:
बहुत ही बढ़िया फिल्म है यह और हम सभी की ज़िन्दगी मे इसका दूर तक असर है .... प्यार किया तो डरना क्या जैसे गीत तो अब मुहावरा बन गये है और कई संवाद भी ।
wakai me bahut hi aachhi movie hai iska yk diologur 'anarkali salim tujhe marne nahi dega aur mai tujhe jine nahi dunga'mujhe bahut hi pasand aaya................ dusra aapki likhawat... dil chhu jane wali
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