मुझे पता नहीं क्यों एक बात पर विरोध दर्ज करने का मन करता है. जब कुछ लोग जो हिन्दी समाज का अंग होने का दावा करते हैं, चिरकुटई की हद को पार करने लगते हैं. फेसबुक जैसे सार्वजनिक मंच का इस्तेमाल क्या किसी बड़े बुजुर्ग को अपमानित करने के लिए क्या जाना चाहिए? जिन भी सज्जन ने वैसा किया, उनका कमेंट्स के जरिये भले मानसों से विरोध भी किया.
पत्रकार राजदीप सारदेसाई हिन्दी पत्रकारों के आत्मविश्वास के कमजोर होने पर सवाल होने उठाते हैं. वे कहते हैं कि हिंदी का विस्तार होने के बावजूद क्या वजह है कि हिंदी पत्रकारिता की विश्वसनीयता कम हुई है? तमाम सुविधाएं व साधन मिलने के बावजूद हिंदी प्रिंट के पत्रकारों का आत्मविश्वास क्यों कम होता जा रहा है? उन्होंने कहा कि हिंदी आज भी हीनताबोध का शिकार है, जबकि अंग्रेजी आकांक्षा की भाषा है.
वेब जगत में ही हिन्दी के एक साहित्यकार का जिस तरह बेमौके मजाक उड़ाया जा रहा है, उसके लिए मेरे मन में घृणा के सिवाय कोई और शब्द नहीं है.किसी पर उंगली उठाना दो मिनट का समय लेता है, लेकिन उसकी काबिलियत तक पहुंच पाना आसान नहीं. कुछ दिनों पहले एक पूर्व आईपीएस और एक विवि के कुलपित द्वारा महिला साहित्यकारों को लेकर जो कमेंट किए गए थे, उसके बाद बड़ा बवाल मचा था. आखिर लोग ऐसा कर किया दर्शाना चाहते हैं.
वेब जगत क्या कुंठाओं को जगजाहिर करने का एकमात्र माध्यम रह गया है? हिन्दी जगत को खुद यहां के चंद वे लोग बदनाम कर रहे हैं, जिनमें सार्वजनिक रूप से किसी बात पर बेबाक होने की इच्छाशक्ति नहीं होती है. वे ही ऐसी हरकतों कर हिन्दी जगत की प्रतिष्ठा को मटियामेट कर डालते हैं. एक बात कहूं, तो साहित्य जगत से हमारा नाता कम रहा है, लेकिन जिन नामों को लेकर लोग गर्व की अनुभूति करते हैं या जिन्हें आधार बनाकर बहस की जाती है, वे क्या उपहास का पात्र बनाए जाने चाहिए. या फिर उपहास का विषय बनाकर कोई कुछ पा लेगा. पता नही... ऐसी हरकतें बंद होनी चाहिए.
Friday, September 17, 2010
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1 comment:
हम भी..
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