Tuesday, September 14, 2010

निरूपमा की मौत में गुनहगार मीडिया

निरूपमा मामले में चार-पांच महीनों के दौरान एक बात पर लोगों का ध्यान नहीं गया कि निरूपमा की मौत के मामले को हमेशा से निरुपमा हत्याकांड के रूप में संबोधित किया जाता रहा. अब जब एम्स की फोरेंसिक जांच रिपोर्ट में उसके आत्महत्या करने की बात की पुष्टि हो गयी है, तो एक बात मीडिया के तमाम पंडितों या लोगों को कठघरे में डालते है कि निरूपमा की मौत को हत्याकांड के रूप में बताया जाता रहा. यहां तमाम मामलों से अलग कहने का उद्देश्य ये है कि निरूपमा मामले को निरूपमा डेथ केस या निरूपमा की मौत का मामला जैसे शीर्षक के साथ पेश किया जा सकता था. लेकिन मीडिया का एक बड़ा तबका निरूपमा की मौत को सीधे हत्या करार देकर उसे हत्याकांड के रूप में संबोधित करता रहा.

निरूपमा की मौत के तुरंत बाद एक वरिष्ठ पत्रकार चैनलों पर इसे ओनर किलिंग की बात कहते हुए सीधे परिवार वालों को दोषी करार देते रहे. मां सुधा पाठक अरेस्ट की गयीं. बेटी की मौत के साथ ही तमाम कठिन हालात का उस परिवार ने सामना किया. अब जब एम्स की जांच कमेटी ने मौत को आत्महत्या करार दिया है, तो मीडिया के तथाकथित रोल और प्रेशर ग्रुप के रूप में रोल निभाने का मामला उजागर हो गया है.

ज्यादा देर नहीं हुई, जब आरुषि मामले में मीडिया देहरी लांघ गया था. मीडिया के तमाम पंडित इस रोल में चूक जाते हैं. वे अपने लिखे या बोले शब्दों के असर को भूल जाते हैं.उनके लिखे शब्द या बोल किसी की जिंदगी बर्बाद कर सकते हैं या बना सकते हैं. सवाल ये है कि मीडिया जज के रोल में खुद को क्यों ले जाता है? न्यायिक प्रणाली में जैसे हरेक शब्द के मोल होते हैं, वैसी ही मीडिया में भी इस मामले को लेकर चर्चा होनी चाहिए.

 मैं निरूपमा मामले में उसे न्याय दिलाने की बात या किसी पहल का विरोध नहीं करता, लेकिन मामले में निष्पक्ष भूमिका निभाने की बजाय सीधे निष्कर्ष पर पहुंच जाना मन को कचोटता है. एम्स की रिपोर्ट के बाद भी अभी भी शायद एकतरफा दबाव की प्रक्रिया या पहल जारी है. वैसे कहा जाए, तो सिस्टम को प्रभावित करने में जितना रोल मीडिया का रहता है, वैसा किसी का नहीं रहता. हमारी मीडिया शायद खुद को स्वतंत्र या ताकतवर होने के गुमान के साथ ईश्वर के रोल में खुद को फिट कर देती है.

 निराशा तो दंतेवाड़ा में जवानों के मारे जाने के समय भी हुई थी. जब सानिया की शादी का लाइव कवरेज ७६ जवानों की मौत से ज्यादा महत्वपूर्ण हो गया था. पत्रकार या लेखक का रोल निभाते हुए जेहन में हमेशा शब्दों से खेलने के दौरान उसके प्रभाव क्षेत्र का अवलोकन करना महत्वपूर्ण है. ऐसा नहीं करने पर एक परंपरा आदत बन जाती है. ऐसा निरूपमा मामले  हुआ है. भावना में बहकर निरुपमा मामले में पत्रकार समुदाय इसे हत्याकांड का दर्जा देता रहा. 

 मामले में अंतिम फैसला तो कोर्ट को करना है. मीडिया खुद जज बनकर इसे हत्याकांड कैसे कह सकता है? निरूपमा का सबसे मजबूत पक्ष ये था कि उसका बैकग्राउंड आइआइएमसी का था और उसके मीडिया से जुड़े रहने की बात ने शायद पत्रकारों के जेहन को प्रभावित किया था. इस कारण जिस तरह से मामले को हाइलाइट किया गया था, उसमें कोई ये मानने को तैयार नहीं था या है कि इस मामले को कोई दूसरा पहलू भी हो सकता है. स्त्री स्वतंत्रता, ओनर किलिंग और खाप पंचायत जैसे शीर्षक से पन्ने के पन्ने रंग दिए गए. अभी तक मैं भी ये नहीं मानता हूं कि निरूपमा की माता निर्दोष है या दोषी है. हम नन जजमेंटल की भूमिका में सिर्फ सूचनाएं देने का काम करें, तो अच्छा होगा.

बौद्धिक जुगाली करते हुए लोग व्यक्तिगत स्वतंत्रता के हार्डकोर हिमायती हो जाते हैं. सामाजिक तानाबुना तोड़नेवाली इन तमाम चीजों को लेकर कहीं से कोई प्रतिरोध नहीं है. लिख दिया, कह दिया, अब कुछ हो, तो मेरी बला से. मेरी उन तमाम ब्लाग या मीडिया के मठाधीशों से गुजारिश है कि आप मामले की तह तक जाए बिना किसी बात को इतना बड़ा न बना दें कि उसमें बहस की सारी संभावनाएं मिटती नजर आए.

1 comment:

भारतीय नागरिक - Indian Citizen said...

निरूपमा की मां को जिन्होंने गिरफ्तार किया और जिन्होंने करवाया, उन्हें भी तो सजा मिलना चाहिये. मीडिया को अब यह अभियान भी चलाना चाहिये.

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