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Monday, April 22, 2013

संकट की घड़ी है. संभलना है तो संभलिए, नहीं तो...

अपने पड़ोस में नजर डालिए. आपको कुछ अहसास होगा. अहसास ये कि आप न जाने कितनी बातों से अनजान रहते हैं. न जाने कितने परिवर्तनों से आप अब तक अछूते रहते हैं. यानी कि आसपास की गुजरती जिंदगी चुपचाप किनारे से निकल जाती है. ऐसे ही जब दिल्ली में बच्ची के साथ दुष्कर्म जैसे मामले होते हैं, तो हम थोड़े सकते में आते हैं. मीडिया भी अलर्ट हो जाता है.डाटा पेश किया जाता है. क्राइम चारों ओर नजर आने लगता है. पहले होते रहे क्राइम से अनजान थे, लेकिन अब अचानक से पूरी जानकारी लेने में जुट जाते हैं. पर ये हम सबके लिए बस चार दिन का खेला है. चार दिन बाद जिंदगी के मेले में हम फिर भूल जाएंगे सबकुछ. सच कहें तो मीडिया, नेता और हर व्यक्ति दोहरे चरित्र का जीवन जी रहा है. मीडिया जहां महिलाओं पर हो रहे अत्याचार को लेकर सजग और अलर्ट है, वहीं खुद अपनी वेबसाइट्स पर हिट पाने के लिए कई हथकंडे अपनाता नजर आता है. नेता एंगर मैनेजमेंट का तरीका अपना कर चुप्पी साध लेते हैं,तो पुलिस महकमा निलंबन और ट्रांसफर का तरीका अपनाता है. यूं कहें कि मामले पर लीपापोती कर अपना स्वार्थ साधा जाने लगता है. हम मिडिल क्लास वाले वैसे भी लोअर लेवल यानी निचले स्तर पर जी रहे लोगों से दूरी बनाए रखने में यकीन रखते हैं. आज भी निचला तबका मीडिया, एंटरटेनमेंट और एजूकेशन से महरूम है. छोटे शहर, गांव के किसान जब दिल्ली या दूसरे बड़े शहरों में जाते हैं, तो फिल्मी सपने देखते हैं. सपना देखने का हक हर किसी को है. इससे हम आप इनकार नहीं कर सकते. लेकिन जब ये सपना पूरा नहीं होता है, तो वह छोटा आदमी तिलमिला जाता है. उसका विवेक मर जाता है और वह रेप या अस्मत लूटने जैसी घटना को अंजाम दे देता है. इन सब बातों में सबसे अहम फिल्म इंडस्ट्री का नजरिया है. डायन, सेक्स और लव इन तीन थीम पर फिलहाल इनकी पूरी इमारत टिकी है. ऐसे में सनी लियोन जैसी पॉर्न स्टार को बॉलीवुड में इंट्री करा कर जब इंडियंस को उनसे परिचय कराया गया, तो उसके दूरगामी परिणाम के बारे में किसी ने भी नहीं सोचा होगा. सनी लियोन जी का नाम गुगल पर डालते ही हर किसी का उनकी जीवनी से परिचय हो जाता है. ऐसे में जो अधकचरा ज्ञान निचले तबके के लोग उनकी जीवनी को इंटरनेट पर पढ़ने के बाद पाते हैं, उसका कुप्रभाव बाद में देखने को मिलेगा ही. अब इन घटनाओं के बाद ज्यादा एनालिसिस करने की भी जरूरत नहीं है. संकट की घड़ी है. संभलना है तो संभलिए, नहीं तो...

Tuesday, October 26, 2010

भूखे-नंगे हिन्दुस्तान का नारा एक गाली की तरह है.

हमारे जैसे लोग, जो अरुंधति राय को उनके किताब को बुकर प्राइज मिलने को लेकर जानते थे, आज उनके सनकपन लिये बयान के लिए जानते हैं. कुछ बुद्धिजीवी, कुछ विचारक, कुछ ब्लागर और कुछ तथाकथित पत्रकार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर अरुंधति का समर्थन करते हैं. हमारे देश में प्रजातंत्र का खुला स्वरूप हर उस बागी तेवर को पसंद करता है, जो इसकी धार को कम करता है. हमारे यहां सीमा पार कर रहे विचारकों का स्वागत किया जाता है. हम उन्हें हीरो बनाने में पीछे नहीं हटते हैं.

 अरुंधति के मामले में हमारे यहां की सरकार हो या हमारी मीडिया आलोचना से पीछे हट जाती है. वह आलोचना नहीं कर पाती. सत्ता के केंद्र से चंद किमी की दूरी पर राष्ट्रविरोधी मुद्दों पर सेमिनार किया जाता है, लेकिन उसे कुछ यूं गुजरने दिया जाता है, जैसा सामान्य सभा हो. अरुंधति जब कहती हैं  कि आई एम डिसोसिएटिंग माइसेलेफ फ्राम हालो सुपर पावर इंडिया, तब भी उनके खिलाफ कोई नेता बयानबाजी नहीं करते. इलेक्ट्रानिक मीडिया में उनके बयान पर बहस नहीं की जाती. इस पर भी नहीं, जब वे कहती हैं कि कश्मीर को भूख-नंगे हिन्दुस्तान से आजादी मिलनी चाहिए. साफ तौर पर ये मौन खतरनाक है. 

अगर कोई इन बातों के खिलाफ आवाज उठाता है, तो उसे संघी तक करार दिया जाता है. किसी भी देश की आजादी उसके अनुशासन पर निर्भर करती है. हम जिस आजाद मुल्क में रहते हैं, उस आजादी को मिले हुए चंद दशक क्या बीत गए, हम अपने ही सिस्टम को गाली देने लगें, ये क्या उचित है. बोले हुए शब्द दिल पर चोट करते हैं. अरुंधति के शब्द अब दिल पर चोट कर रहे हैं. नक्सलिज्म जैसे नासूर को समर्थन देकर और चंद आंदोलनों में शामिल होकर अरुंधति किस समाजसेवा की दुहाई देती हैं, ये सोचने की बात है. अरुंधति ने गरीबी नहीं देखी. उन्होंने करोड़ों गरीबों और बेरोजगारों के रोजगार नहीं मिलने के दर्द को महसूस नहीं किया है. किसी व्यवस्था को तोड़ने या देश को बनाने में सैकड़ों साल लग जाते है. भाईचारगी को कायम रखने में हजारों कुर्बानियां चली जाती हैं. उसी जगह पर अरुंधति जैसे लोग खुद को आंदोलन के नायक बनने की राह पर देश के सामने ऐसी बाधाएं खड़ी करते चले जाते हैं, जिनके सामने हमारा स्वाभिमान तिल-तिल कर मरता है.

अरुंधति को इस देश की मिट्टी ने ही पहचान दी. अब उस देश की मिट्टी के खिलाफ उनके भूखे-नंगे हिन्दुस्तान का नारा एक गाली की तरह है. हम जिस अरुंधति पर चंद साल पहले जो गर्व करते थे, वो गर्व धुल चुका है. वैसे भी सरकार इस बात पर गौर करे कि अरुंधति उस बिंदु को मजबूत कर रही हैं, जिसके नीचे कश्मीर के बागी नेता और नक्सल समर्थक जमा हो रहे हैं. अरुंधति के रूप में उन्हें एक ऐसा ग्लैमर लिया चेहरा भी मिल रहा है, जो उनकी आवाज को ज्यादा मजबूती से सामने रख रहा है. उस चेहरे के  पीछे की हकीकत सच्चाई में ज्यादा भयानक है. अरुंधति के बयान को कोई सच्चा भारतीय स्वीकार नहीं करेगा.

Tuesday, September 14, 2010

निरूपमा की मौत में गुनहगार मीडिया

निरूपमा मामले में चार-पांच महीनों के दौरान एक बात पर लोगों का ध्यान नहीं गया कि निरूपमा की मौत के मामले को हमेशा से निरुपमा हत्याकांड के रूप में संबोधित किया जाता रहा. अब जब एम्स की फोरेंसिक जांच रिपोर्ट में उसके आत्महत्या करने की बात की पुष्टि हो गयी है, तो एक बात मीडिया के तमाम पंडितों या लोगों को कठघरे में डालते है कि निरूपमा की मौत को हत्याकांड के रूप में बताया जाता रहा. यहां तमाम मामलों से अलग कहने का उद्देश्य ये है कि निरूपमा मामले को निरूपमा डेथ केस या निरूपमा की मौत का मामला जैसे शीर्षक के साथ पेश किया जा सकता था. लेकिन मीडिया का एक बड़ा तबका निरूपमा की मौत को सीधे हत्या करार देकर उसे हत्याकांड के रूप में संबोधित करता रहा.

निरूपमा की मौत के तुरंत बाद एक वरिष्ठ पत्रकार चैनलों पर इसे ओनर किलिंग की बात कहते हुए सीधे परिवार वालों को दोषी करार देते रहे. मां सुधा पाठक अरेस्ट की गयीं. बेटी की मौत के साथ ही तमाम कठिन हालात का उस परिवार ने सामना किया. अब जब एम्स की जांच कमेटी ने मौत को आत्महत्या करार दिया है, तो मीडिया के तथाकथित रोल और प्रेशर ग्रुप के रूप में रोल निभाने का मामला उजागर हो गया है.

ज्यादा देर नहीं हुई, जब आरुषि मामले में मीडिया देहरी लांघ गया था. मीडिया के तमाम पंडित इस रोल में चूक जाते हैं. वे अपने लिखे या बोले शब्दों के असर को भूल जाते हैं.उनके लिखे शब्द या बोल किसी की जिंदगी बर्बाद कर सकते हैं या बना सकते हैं. सवाल ये है कि मीडिया जज के रोल में खुद को क्यों ले जाता है? न्यायिक प्रणाली में जैसे हरेक शब्द के मोल होते हैं, वैसी ही मीडिया में भी इस मामले को लेकर चर्चा होनी चाहिए.

 मैं निरूपमा मामले में उसे न्याय दिलाने की बात या किसी पहल का विरोध नहीं करता, लेकिन मामले में निष्पक्ष भूमिका निभाने की बजाय सीधे निष्कर्ष पर पहुंच जाना मन को कचोटता है. एम्स की रिपोर्ट के बाद भी अभी भी शायद एकतरफा दबाव की प्रक्रिया या पहल जारी है. वैसे कहा जाए, तो सिस्टम को प्रभावित करने में जितना रोल मीडिया का रहता है, वैसा किसी का नहीं रहता. हमारी मीडिया शायद खुद को स्वतंत्र या ताकतवर होने के गुमान के साथ ईश्वर के रोल में खुद को फिट कर देती है.

 निराशा तो दंतेवाड़ा में जवानों के मारे जाने के समय भी हुई थी. जब सानिया की शादी का लाइव कवरेज ७६ जवानों की मौत से ज्यादा महत्वपूर्ण हो गया था. पत्रकार या लेखक का रोल निभाते हुए जेहन में हमेशा शब्दों से खेलने के दौरान उसके प्रभाव क्षेत्र का अवलोकन करना महत्वपूर्ण है. ऐसा नहीं करने पर एक परंपरा आदत बन जाती है. ऐसा निरूपमा मामले  हुआ है. भावना में बहकर निरुपमा मामले में पत्रकार समुदाय इसे हत्याकांड का दर्जा देता रहा. 

 मामले में अंतिम फैसला तो कोर्ट को करना है. मीडिया खुद जज बनकर इसे हत्याकांड कैसे कह सकता है? निरूपमा का सबसे मजबूत पक्ष ये था कि उसका बैकग्राउंड आइआइएमसी का था और उसके मीडिया से जुड़े रहने की बात ने शायद पत्रकारों के जेहन को प्रभावित किया था. इस कारण जिस तरह से मामले को हाइलाइट किया गया था, उसमें कोई ये मानने को तैयार नहीं था या है कि इस मामले को कोई दूसरा पहलू भी हो सकता है. स्त्री स्वतंत्रता, ओनर किलिंग और खाप पंचायत जैसे शीर्षक से पन्ने के पन्ने रंग दिए गए. अभी तक मैं भी ये नहीं मानता हूं कि निरूपमा की माता निर्दोष है या दोषी है. हम नन जजमेंटल की भूमिका में सिर्फ सूचनाएं देने का काम करें, तो अच्छा होगा.

बौद्धिक जुगाली करते हुए लोग व्यक्तिगत स्वतंत्रता के हार्डकोर हिमायती हो जाते हैं. सामाजिक तानाबुना तोड़नेवाली इन तमाम चीजों को लेकर कहीं से कोई प्रतिरोध नहीं है. लिख दिया, कह दिया, अब कुछ हो, तो मेरी बला से. मेरी उन तमाम ब्लाग या मीडिया के मठाधीशों से गुजारिश है कि आप मामले की तह तक जाए बिना किसी बात को इतना बड़ा न बना दें कि उसमें बहस की सारी संभावनाएं मिटती नजर आए.

Wednesday, September 8, 2010

मीडिया और इनसिक्योरिटी

आज-कल हर कोई इनसेक्योर फील कर रहा है. खासकर मीडिया में लोग अजीब सी ग्रंथी लिये जीते रहते हैं. नौकरी रहेगी या नहीं रहेगी. हम परिवर्तन के हिसाब से रह पाएंगे या नहीं, बहुत कुछ. जो जहां है, वहीं बेचैन है. आखिर ऐसा क्यों है, ये जानने के लिए कई एक्सपर्ट आए और चले गए. वैसे जहां बेचैनी है, वहीं आगे बढ़ने के तरीके भी बनते हैं. कोई काम कैसे नए आइडिया के साथ किया जाए. ये चुनौती हमेशा बनी रहती है.

हमारे जेहन में हमेशा एक ख्वाब रहता है. खासकर हरेक मीडिया पर्सन के मन में पावर यानी सत्ता के आसापास घूमते रहने का ख्वाब जरूर रहता है. और यहीं से सारी गड़बड़ी शुरू हो जाती है. काफी सारे मीडियाकर्मी सारी काबिलियत रहते हुए वे चीजें हासिल नहीं कर पाते, जो वे कर सकते हैं. शायद हम भी उसमें से एक हों. हर मीडिया कर्मी के पास शुरुआती दौर में शायद समाज बदलने का जज्बा होता है, जो बाद में नौकरी बचाने में तब्दील हो जाता है. इसी नौकरी बचाने की कशमकश से एक नई जिद किसी तरह भी सत्ता के पास बने रहने की होती है, चाहे वह कैसी भी हो.

सवाल वही है कि जो मीडिया पर्सन है, वह क्या सही मायने में मीडिया का आदमी या पत्रकार रह जाता है. या फिर वह उन चंद लोगों में शुमार हो जाता है, जो पैसे या लाभ के लिए कुछ भी कर सकता है. हमारे हिसाब से वह उन चंद लोगों में शामिल हो जाता है, जो लाभ के लिए कुछ भी कर सकते हैं. इसी कारण भारतीय मीडिया के पास वह हाइयेस्ट टच प्वाइंट नैतिकता के हिसाब से आज तक नहीं उभर कर आया है, जिसके सहारे हमारे देश की मीडिया अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उदाहरण बने.

इलेक्ट्रानिक मीडिया के दनादन काल में न तो खबर की ही अहमियत बच रही है, ना ही किसी खबर की गहराई तक हम जा पा रहे हैं. किसी खास चैनल के सिर्फ बेहतर करने से भी पत्रकारिता का परिदृश्य बदलने नहीं जा रहा है. ऐसे में हम जब टोटैलिटी में पूरी बात करते हैं, तो हम शर्मिंदा होते हैं. हमारी मीडिया पर ही मुंबई हादसे के बाद गैर-जिम्मेवार होने के आरोप लगते हैं. तब जब सरकार इसे कंट्रोल करने की बात करती है, तो हम विरोध पर उतारू हो जाते हैं.

 गला काट प्रतियोगिता के दौर में जब खुद को जिंदा रहने की बात आ जा रही है, तो हमारी मीडिया भी वही कर रही है, जो जंगल में जानवर करता है. लेकिन हम चौथे स्तंभ का दावा करनेवाले इन सब चीजों से ऊपर कब उठेंगे, ये पहला सवाल है. मीडिया कब जिम्मेवार बनेगी और इसमें काम करनेवाले कब इनसिक्योरिटी के स्तर को खत्म कर पाएंगे, ये सोचने की बात है. ये इनसिक्योरिटी पैदा करनेवाला भी पत्रकारिता समूह ही है, जो सबसे ज्यादा गुटबाजी का शिकार है. कारपोरेट शैली की बात करते-करते वही निम्न स्तर की गुटबाजी की बात शुरू हो जाती है. समय आ गया है कि दूसरों को उपदेश देनेवाले मीडिया के लोग खुद के अंदर भी झांकें.

Sunday, May 30, 2010

यहां मामला संवेदना शून्य हो जाने का है (झाड़ग्राम)

जब झाड़ग्राम में हादसे की खबर मिली, तो साफ तौर पर दंतेवाड़ा के बाद लोग ऐसी खबर के लिए मानसिक तौर पर तैयार हो गये होंगे। सवाल ये नहीं है कि अब इन खबरों को लेकर कितनी कवरेज की गयी या हम समस्या को लेकर कितने गंभीर हैं। यहां मामला संवेदना शून्य हो जाने का है। ममता बनर्जी बयान देती हैं कि ये राज्य का लॉ एंड आर्डर प्रॉब्लम है। चलिये मान लिया, लेकिन भारत के तौर पर एक देश है कहां? क्या इस देश में कोई लॉ एंड आर्डर देखनेवाला नहीं है। क्षेत्रीय राजनीति किस कदर किसी समस्या को बढ़ावा देती है, ये यहां साफ तौर पर देखने लायक है। अगर चिदंबरम झारखंड और पश्चिम बंगाल में असहाय महसूस करते हैं, तो इस देश की जनता और तमाम तरह के नेताओं को ये सोचना होगा कि आखिर वे किस भूखंड या क्षेत्र की लड़ाई लड़ रहे हैं। नक्सली जब खुली बगावत पर उतर आये हैं, तो ये तमाम तरह के गिले शिकवे और शिकायतें बेकार हो जाती हैं। सच कहें, तो इस बार काफी हिम्मत कर इस मुद्दे को छूने का मन कर रहा है। क्योंकि संवेदनाओं के मरने का अंत खुद मन से शुरू होता है। तमाम तरह की खबरों को छापते हुए जब ट्रेन पर खुद सवार होकर नक्सली बेल्ट से गुजरना होता है, तो मन कहीं न कहीं उस ऊपरवाले से जरूर दुआ कर रहा होता है। नक्सल समस्या को ग्लैमर की चाशनी में भिगों कर अब ज्यादा दिन नहीं देखा जा सकता है। ये एक ऐसा वीभत्स सत्य है, जहां से सोच का अंत हो जाता है और एक दूसरी नयी सोच शुरू होती है। जो तमाम तरह की बहसों
को अपनी बौद्धिक दलीलों से बेकार करना का तानाबुना बुनती रहती है। कहीं न कहीं तो सरकार के साथ हम लोगों को भी जगना होगा। क्योंकि जब सवाल जिंदगी पर आ जाये, तो जिंदगी बचाना पहली प्राथमिकता होनी चाहिए।

Monday, May 3, 2010

निरूपमा की मौत पर प्रियभांशु से सवाल, रिश्ते को एक नाम देने में देरी क्यों की?

निरूपमा की मौत के बाद रह-रहकर एक सवाल मेरे जेहन में बार-बार आ रहा है कि इस देश में ऐसे न जाने कितने प्रियभांशु होंगे, जो अपने रिश्ते को एक नाम देने से घबराते हैं। महानगर में रहना, वहां का स्वतंत्र जीवन जीना और परिवार से दूर रहकर खुद के लक्ष्य के प्रति समर्पित रहना किसने अच्छा नहीं लगता। जरूर रहो, मजे में रहो, लेकिन उससे कई जिम्मेदारियां भी साथ जुड़ती चली जाती हैं। 
एक जिम्मेवारी ये रहती है कि आप जिससे रिश्ता रख रहे हैं, उस रिश्ते के प्रति आपमें कितना समर्पण है। जब निरूपमा को ये पता चला होगा कि उसके पेट में गर्भ है, तो क्या उसके दिल में ममता का ज्वार नहीं फूटा होगा? तब क्या उसने अपने अब तक के रिश्ते को एक कदम आगे बढ़कर विवाह जैसे संस्कार से जुड़ने की बात नहीं की होगी। सवाल ये है कि इतना लंबा समय यानी दो महीने से ज्यादा समय गर्भ धारण के गुजर जाने के बाद भी अब तक इस दिशा में कदम क्यों नहीं उठाया गया।
भले ही पश्चिम समाज की नकल करते हुए, नारी अधिकार की आवाज उठाते हुए या स्त्री के अस्तित्व के नाम पर विवाह की बात को दरकिनार करने की सौ बात की जाये, लेकिन ये सच है कि एकल मातृत्व का बोझ किसी भी महिला के लिए बड़ा कठिन होता है। वह भी तब जब खुद नौकरी करके बड़े शहर में उसे जीवनयापन करना है। ऐसे में जब रिश्ते के मामले में दो लोग इतने आगे बढ़ गये थे, तो जिंदगी भर का हमसफर बनने में बड़ी रोक क्या थी? 
हमारा मकसद ऐसी हजारों निरूपमाओं के लिए आवाज उठाना है, जो बड़े या छोटे शहरों में भावना के नाम पर ऐसे जंजाल में फंसती चली जाती हैं., जहां से निकलना कठिन हो जाता है। 

निरूपमा के मामले में उसका अंत इतना बुरा हुआ हो, लेकिन एक बात सच है कि वह अपने माता-पिता की एकलौती बेटी थी। उसकी पढ़ाई-लिखाई में कोई कोताही नहीं बरती गयी। साथ ही उसे इतनी स्वतंत्रता दी गयी कि दिल्ली जैसे बड़े शहर में जाकर वह स्वतंत्र होकर जीवनयापन कर सके। ऐसे में उसके मां-बाप का उसके प्रति पहले जो प्रेम या समर्पण था, उससे हम कैसे इनकार कर सकते हैं? 

प्रियाभांशु को इस मामले में मीडिया की ओर से भी सवाल किये जाने चाहिए कि अब तक शादी जैसा कदम उसने क्यों नहीं उठाया? जब प्रियभांशु टीवी पर न्याय की गुहार लगाता रहता है, तो लगता है कि एक सच को मीडिया छिपाने का काम कर रहा है। उससे सवाल पूछा जाना चाहिए कि उसका ये गैर-जिम्मेवार रवैया क्यों रहा? और ये सवाल बार-बार पूछा जाना चाहिए

निरूपमा आइआइएमसी की छात्रा थी, इसलिए इस मामले में मीडिया इतना सक्रिय भी हो गया, लेकिन इसके साथ सवाल उन हजारों निरूपमाओं का भी है, जो प्रियभांशु जैसे शख्स के झूठे प्रेमजाल में फंसकर अपने अस्तित्व से खिलवाड़ कर बैठती हैं।

हम बार-बार यही सवाल उठा रहे हैं कि निरूपमा के गर्भधारण के समय से जो स्थिति थी, उसमें प्रियभांशु की क्या भूमिका रही। इस मामले में मीडिया क्यों नहीं उससे सवाल जवाब कर रहा है? माता-पिता ने अगर आनर किलिंग की है, तो उन्हें सजा जरूर मिलेगी, लेकिन प्रियभांशु भी सवालों के कठघरे में है

इलेक्ट्रानिक मीडिया प्रियभांशु से एक पत्रकार होने से इतर, उसके एक युवक होने के नाते और एक रिश्ते के प्रति जिम्मेदार होने के सवाल पर सवाल-जवाब करे। नहीं तो मीडिया के रोल पर भी कई सवाल उठ खड़े हो रहे हैं। निरूपमा ने जाते-जाते समाज के सामने कई सवाल छोड़ दिये हैं। हजारों निरूपमाओं को इसी बहाने से जीवन में नया रास्ता मिले, इसका प्रयास होना चाहिए। महिला आयोग भी इस मामले में जरूर कदम उठाये कि एक महिला के अस्तित्व से खिलवाड़ करनेवाले को अब तक क्यों नहीं सवालों के घेरे में लिया गया है?

मुझे प्रियभांशु के शोकाकुल चेहरे में कोई ऐसा दर्द नजर नहीं आता, जिसके लिए मैं उसके साथ न्याय के लिए आवाज बुलंद करूं। हां निरूपमा के हत्यारों को सजा देने की
मांग जरूर करता हूं, लेकिन प्रियभांशु के साथ न्याय की गुहार लगानेवालों में कभी शामिल नहीं होऊंगा। क्योंकि मुझे ऐसे में एक वैसे शख्स का साथ देने का गुनाह नजर आता है, जो अपनी जिम्मेवारियों से लगातार भागता रहा। उसने रिश्ते के नाम पर उस लकीर को पारकर लिया,जिसके बाद एक महिला तीसरे रिश्ते मातृत्व की ओर आगे बढ़ती है। अगर रास्ते में इतनी लंबी दूरी कर ली थी, तो प्रियभांशु से सवाल वही है कि रिश्ते को एक नाम देने में देरी क्यों की।


तस्वीरें मोहल्ला लाइव से साभार...


साथ में पोस्टमार्टम रिपोर्ट की कॉपी...

Sunday, May 2, 2010

निरूपमा की मौत, दुखद, हैं कई सवाल...

पहले दिन खबर आयी कि पत्रकार निरूपमा की करंट लगने से मौत हो गयी। अब पोस्टमार्टम रिपोर्ट का इंतजार था। उसमें जिस बात का खुलासा हुआ, उससे सब सकते में थे। मामला ये था कि गला घोंटकर निरूपमा की हत्या की गयी थी। पेट में गर्भ भी था।  मामले को लेकर चाहे जितनी भी बातें की जाये, लेकिन एक पहलू ये भी है कि पेट में गर्भ लिये जिंदगी गुजार रही निरूपमा असुरक्षा के दायरे में जी रही होगी। ऐसा नहीं होगा कि उसे नहीं पता होगा और न ही उसके मित्र प्रियभांशु को या उसके घरवालों को। ऐसे में परिवारवालों ने ही ऐसा घृणित कदम उठाया या किसी और ने,  जांच का विषय है। (वैसे परिवार की भूमिका भी कई सवाल खड़े कर रही है। पहले करंट से मौत बताना और फिर ये पता चलना कि मौत दम घोंटने से हुई है).


ये जांच का भी विषय है कि कैसी परिस्थितियां निरूपमा के जीवन में बन आयी थीं कि उसे ऐसे हालात का सामना करना पड़ा।  पेट में गर्भ का पाया जाना पुरुष मित्र प्रियभांशु की भूमिका को भी संदेह के दायरे में खड़ा करता है। उनके बीच के संबंधों पर सवाल खड़े किये जाने चाहिए। 


हमें लगता है कि टीवी चैनलों या दूसरी जगहों पर मामले को इसे आनर किलिंग का बताकर फिर से उसी तरह की गलती की जा रही है, जैसा आरुषि हत्याकांड को लेकर किया गया था। निरूपमा के मीडिया जगत से नाता रखने के कारण मीडिया जरूर संवेदनशील है, लेकिन ऐसे में उसे त्वरित प्रतिक्रिया से अलग पूरी जांच को भी परखना होगा। पारिवारिक रिश्ते-नातों की जांच के बाद ही कुछ कहा जा सकेगा कि मामला क्या है? 


वर्तमान सच तो ये है कि मीडिया जगत ने एक होनहार साथी को खो दिया। किसी युवा की दर्दनाक मौत हमेशा चुभती रहती है। रह-रहकर ये बता जाती है कि मौत का किसी से अपनापन नहीं होता है। ऐसे में निरूपमा की मौत भी नहीं भूल सकनेवाली उन मौतों में शामिल हो गयी है, जिसने मानवीय संवेदना को झकझोर दिया है। और जो ये विश्वास करने को कह रही है कि ऐसी घटना परिवार के सुरक्षित दायरे में भी घट सकती है। ये पारिवारिक सुरक्षा क्यों तार-तार हो गयी, ये सोचनवाली बात है। निरूपमा की मौत के दोषियों को सजा जरूर मिले।  
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