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Friday, September 3, 2010
ये नक्सली नासूर बन चुके हैं..
जब नक्सलियों से राजनीतिक उनके समाज के हिस्सा होने की बातें करते हैं, तो एक सवाल उठता है कि किस समाज और कैसे समाज के वे हिस्से हैं. नीतीश कुमार के सामने अभी जो स्थिति है, उसके लिये वे सारे लोग जिम्मेवार हैं, जो सत्ता के शिखर पर बैठ सिर्फ बतकही करते हैं. एक साल पहले जब झारखंड के एक पुलिसकर्मी की नक्सलियों ने हत्या कर दी थी, तो उस समय भी बड़ी-बड़ी बातें की जा रही थी. इतने लंबे वक्त के बाद भी ग्रीन हंट अभियान के कमजोर पड़ते जाने और नक्सलियों के सामने हताशा का प्रदर्शन करनेवाली सरकारें कृपा करके माथे पर काली पट्टी बांध कर भिड़ंत का रुख तय करें. शहादत लड़ते हुए मिले, तो उसमें जांबाजी का एहसास होता है, लेकिन जब मौत बिना लड़े मिले, तो निकम्मेपन का एहसास होता है. मौत तो सभी को आती है. जब नक्सलियों ने मरने और मारने का ही नियम बना लिया है, तो हमारी सरकार या हम बातचीत का रवैया रखने की कौन सी बात करते हैं. हमें धिक्कार है कि हम और हमारी सरकार इन मामलों में अभी भी सहानुभूति का नजिरया रखती है. कई लोग सर्वहारा संघर्ष जैसा राग अलापते हुए शायद अंदर ही अंदर इस हत्यारे नक्सलवाद को समर्थन की बातें करते हों, लेकिन उनसे मारे गए पुलिस अधिकारियों, लोगों और जवानों के परिजनों की आंखों से निकलते आंसू को याद रखने की अपील की जानी चाहिए. ये देश कई घाव सह चुका है. लेकिन खुद देश के अंदर जो ये नासूर पैदा हो गया है, उसका एक ही इलाज है कि सड़े हुए अंग को काट कर फेंक दिया जाए. सही में कहें, तो नक्सलवाद एक क्राइम है, जो अब सिर्फ अपराध की राह पर ही चल रहे हैं. अगर किसी को खराब लगे, तो लगे, लेकिन सच्चाई यही है
Sunday, May 30, 2010
यहां मामला संवेदना शून्य हो जाने का है (झाड़ग्राम)
जब झाड़ग्राम में हादसे की खबर मिली, तो साफ तौर पर दंतेवाड़ा के बाद लोग ऐसी खबर के लिए मानसिक तौर पर तैयार हो गये होंगे। सवाल ये नहीं है कि अब इन खबरों को लेकर कितनी कवरेज की गयी या हम समस्या को लेकर कितने गंभीर हैं। यहां मामला संवेदना शून्य हो जाने का है। ममता बनर्जी बयान देती हैं कि ये राज्य का लॉ एंड आर्डर प्रॉब्लम है। चलिये मान लिया, लेकिन भारत के तौर पर एक देश है कहां? क्या इस देश में कोई लॉ एंड आर्डर देखनेवाला नहीं है। क्षेत्रीय राजनीति किस कदर किसी समस्या को बढ़ावा देती है, ये यहां साफ तौर पर देखने लायक है। अगर चिदंबरम झारखंड और पश्चिम बंगाल में असहाय महसूस करते हैं, तो इस देश की जनता और तमाम तरह के नेताओं को ये सोचना होगा कि आखिर वे किस भूखंड या क्षेत्र की लड़ाई लड़ रहे हैं। नक्सली जब खुली बगावत पर उतर आये हैं, तो ये तमाम तरह के गिले शिकवे और शिकायतें बेकार हो जाती हैं। सच कहें, तो इस बार काफी हिम्मत कर इस मुद्दे को छूने का मन कर रहा है। क्योंकि संवेदनाओं के मरने का अंत खुद मन से शुरू होता है। तमाम तरह की खबरों को छापते हुए जब ट्रेन पर खुद सवार होकर नक्सली बेल्ट से गुजरना होता है, तो मन कहीं न कहीं उस ऊपरवाले से जरूर दुआ कर रहा होता है। नक्सल समस्या को ग्लैमर की चाशनी में भिगों कर अब ज्यादा दिन नहीं देखा जा सकता है। ये एक ऐसा वीभत्स सत्य है, जहां से सोच का अंत हो जाता है और एक दूसरी नयी सोच शुरू होती है। जो तमाम तरह की बहसों
को अपनी बौद्धिक दलीलों से बेकार करना का तानाबुना बुनती रहती है। कहीं न कहीं तो सरकार के साथ हम लोगों को भी जगना होगा। क्योंकि जब सवाल जिंदगी पर आ जाये, तो जिंदगी बचाना पहली प्राथमिकता होनी चाहिए।
को अपनी बौद्धिक दलीलों से बेकार करना का तानाबुना बुनती रहती है। कहीं न कहीं तो सरकार के साथ हम लोगों को भी जगना होगा। क्योंकि जब सवाल जिंदगी पर आ जाये, तो जिंदगी बचाना पहली प्राथमिकता होनी चाहिए।
Thursday, April 8, 2010
दंतेवाड़ा से ज्यादा सानिया एपिसोड का प्रसारण, सर पटकने का मन करता है..
इलेक्ट्रानिक मीडिया ने दो दिनों में दंतेवाड़ा और सानिया की खबरों के प्रसारण के समय में सानिया की खबरों को ज्यादा तरजीह दी। लाइव टेलीकास्ट किया। ऐसा लगा कि शोएब भाई साहब के मामले ने दो देशों के संबंधों को बिगाड़ने की स्थिति पैदा कर दी है। सीधे तौर पर कहने को मन करता है कि इलेक्ट्रानिक मीडिया टीआरपी के नाम पर दिमाग से पैदल हो गया है। दिमाग से पैदल होने का मतलब है कि उसे देश और समाज के सामाजिक सरोकारों से कोई मतलब नहीं है। शोएब कैसे हैं, क्या हैं, इसे लेकर इलेक्ट्रानिक मीडिया परेशान है। कहीं भी किसी चैनल में किसी शहीद के परिवार की स्थिति को लेकर कोई रिपोर्ट नजर नहीं आयी। क्या शहादत को इस तरह नजरअंदाज करना जायजा है। ये एक अहम सवाल है। जिस प्रकार मुंबई के समय मीडिया एक हो गया था, सारी खबरें पीछे छूट गयी थी और वही एक खबर सबके लिए थी। वैसा ही मामला दंतेवाड़ा भी है। दंत्तेवाड़ा में मारे गये जवानों की सूची इस बार सबसे लंबी थी। इलेक्ट्रानिक मीडिया यहां इस बार चूक गया। सानिया मिर्जा एपिसोड में उसने अपना चरित्र दिखा दिया है। जनसरोकारों से दूर होती इस इलेक्ट्रानिक मीडिया (खास कर हिन्दी) को अब ये सोचना होगा कि उसने अपनी धार क्यों खो दी। दंतेवाड़ा की घटना के बाद नेशनल कहे जानेवाले चैनलों को उन शहीद जवानों के परिवारों की खोज खबर के लिए जान लगा देनी चाहिए थी। उन खामियों का परत दर परत खुलासा किया जाना चाहिए था, जिसकी उसे अभी जरूरत है। रिपोर्टिंग हुई भी, तो बस खानापूर्ति के लिए। सच कहें, तो अंग्रेजी मीडिया हिन्दी की इलेक्ट्रानिक बिरादरी से ज्यादा प्रभावी तरीके से काम करता नजर आता है। ऐसा क्यों है, पता नहीं। लेकिन इस पर विश्लेषण होना चाहिए। हिन्दी मीडिया में खबरों के नाम पर सिर्फ क्रिकेट, आइपीएल या फिल्मी तड़का ही क्यों नजर आता है। नहीं तो यू ट्यूब से उठाया हुआ वीडियो ही क्यों दिखाकर टाइम पास किया जाता है। कहीं न कहीं दर्शकों को बेवकूफ बनाया जा रहा है। क्षेत्रीय इलेक्ट्रानिक चैनलों की बात जाने दें, लेकिन नेशनल कहे जानेवाले चैनल जिम्मेदारी नहीं समझ रहे, ये सोचनेवाली बाते हैं। इसी मीडिया ने दिल्ली में हुए कई कत्लों का परत दर परत खुलासा किया। कई अन्य चीजों को सामने लाने की जिम्मेवारी उठायी। लेकिन दंतेवाड़ा मामले में ये फिसड्डी साबित हुआ। क्योंकि उसके पास शायद ऐसी कोई जमीनी जानकारी नहीं है, जिससे एक पूरी व्यवस्थागत रिपोर्टिंग की जा सके। सानिया
एपिसोड का दंतेवाड़ा घटना की तुलना में ज्यादा महत्व देना देश के साथ विश्वासघात है। जनसरोकार से दूर होती हिन्दी इलेक्ट्रानिक मीडिया का ये चरित्र खतरनाक है। इससे उसे कम, देश को ज्यादा नुकसान है।
एपिसोड का दंतेवाड़ा घटना की तुलना में ज्यादा महत्व देना देश के साथ विश्वासघात है। जनसरोकार से दूर होती हिन्दी इलेक्ट्रानिक मीडिया का ये चरित्र खतरनाक है। इससे उसे कम, देश को ज्यादा नुकसान है।
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