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Wednesday, April 27, 2011

बहुत याद आती हो नीरू

आपको निरूपमा याद है. भूल गए ना. जिंदगी की रफ्तार ही ऐसी है. आज यूं ही बैठे-बैठे निरुपमा की याद हो आयी. नेट पर खंगालने के बाद पाया कि निरुपमा की मौत के एक साल पूरे हो गए हैं. पूरे एक साल. जिंदगी की रफ्तार कुछ यूं तेज हो चली कि लोग भी भूल गए हैं. स्टेटस में भी निरुपमा को न्याय दिलानेवालों की संख्या कम हो गयी है. आखिर इतना टेंशन कौन ले.

अब प्रियभांशु के फेसबुक वाल पर भी अगर आप जाएं, तो वहां मार्च के बाद पूरे एक महीने तक प्रियभांशु ने अपने स्टेटस को अपडेट नहीं किया है. यानी कि वो लो प्रोफाइल मेंटेन कर रहा है. उसके दोस्त ने पूछा कि ये कैसा कोर्ट का आदेश आया है.. लेकिन प्रियभांशु ने कोई जवाब नहीं दिया. ये जो समय है, वो भी प्रियभांशु से उन सारे सवालों का जवाब मांगेगा, जिसका शायद वह जवाब नहीं दे पाए. कई बातें ऐसी होंगी, जो केवल वो जानता होगा. एक सवाल ये भी था कि प्रियभांशु ने निरुपमा को उस समय, जब उसे उसकी सबसे ज्यादा जरूरत थी, अकेले कैसे छोड़ दिया था. अब ये बहस पुरानी हो चली है. बात तो ये है कि निरुपमा का मामला अगले साल तक एक पुराना मामला हो जाएगा. बूढ़े माता-पिता भी संघर्ष करते हुए हिम्मत हार चलेंगे और प्रियभांशु भी उम्र के एक खास पड़ाव पर पहुंच जाएगा.

हम एक बात सोचते हैं कि प्रियभांशु तो निरुपमा की जिंदगी में काफी बाद में आया. लेकिन निरुपमा को, अपनी बेटी, को एक माता-पिता ने एक मुकाम तक पहुंचाने के लिए जो संघर्ष किया था, उसे कैसे अनदेखा किया जा सकता है. मैं अपनी बेटी को अभी से जब पढ़ाई की शुरुआत कराने से लेकर उसके आनेवाले दिनों के लिए दिमागी जद्दोजहद से गुजर रहा हूं, तो निरुपमा के माता-पिता ने भी न जाने अपनी बेटी के लिए कितना संघर्ष किया होगा. साथ ही किया होगा भरोसा. भरोसा कि मेरी बेटी मेरा नाम रौशन करेगी. आप भी अपनी छोटी बेटी या बेटा के लिए वो बोल गुनगुनाते ही होंगे-तुझको कहूं मैं चंदा, तुझको कहूं मैं तारा, मेरा नाम करेगा रौशन, जग में मेरा राज दुलारा. इस बोल में एक अभिभावक की भावनाओं को उड़ेल कर रख दिया गया है.

हम यहां जानते हैं कि कानून अंधा होता है. कानून माता-पिता, भाई से लेकर प्रियभांशु तक से सवाल-जवाब करेगा. लेकिन माता-पिता और भाई पर क्या गुजर रही होगी, इसका अंदाजा लगाना मुश्किल है. अब मामला कुछ आगे बढ़ चला है. ऐसे में प्रियभांशु के वे सब दोस्त याद आते हैं, जो उसकी मुहिम में उसके साथ थे,. निरुपमा को न्याय मिले, ये हम भी चाहते हैं.एक ऐसा न्याय, जो उन सारे सवालों को जवाब दे, जो इस एक साल में बहसों के दौरान उठे हैं. ओनर किलिंग हुई है या नहीं, ये नहीं जानते. लेकिन निरुपमा की मौत के बाद सीधे-सीधे दिल्ली में बैठे मीडिया पर्सन जिस तरह से इस मुद्दे को ओनर किलिंग की बात कह रहे थे, जिस आक्रामक भाषा का प्रयोग कर रहे थे, वे सारी बातें अब फिर से उठायी जानी चाहिए.

तेज रफ्तार हो चली मीडिया ने अन्ना को रातों रात इतना जनाधार दे दिया, वैसे ही निरुपमा की मौत के बाद दिल्ली से खेला गया इमोशनल ड्रामा कोडरमा में बैठे माता-पिता पर कहर बरपाता रहा. इन सारी बातों में एक बात साफ है कि मुसीबत के समय निरुपमा मानसिक तौर पर अकेली हो चुकी थी. उसे जिस सहारे की जरूरत थी, वो उसे नहीं मिला. न तो माता-पिता ने उस पर भरोसा किया कि वो अपने मन की बात या अपनी शारीरिक स्थिति यानी वो गर्भवती है, उसे खुल कर कह पाती और न ही प्रियभांशु इतने लंबे गर्भ काल के दौरान ही साथ देने आगे आया. ऐसे में निरुपमा किस दबाव में थी, उसका अनुमान लगा पाना या शब्दों में कहना कठिन है.
तमाम बहस और दलील समय के साथ बेकार भी हो चले हैं. अभी तो फिलहाल  निरुपमा के लिए दो शब्द-ईश्वर उसकी आत्मा को शांति दे.

Wednesday, May 5, 2010

माफ कीजिएगा, मैं ब्लाग जगत और तथाकथित बौद्धिक जनों की झूठी दलीलों से ऊब गया हूं....

माफ कीजिएगा, मैं ब्लाग जगत और तथाकथित बौद्धिक जनों की झूठी दलीलों से ऊब गया हूं। स्त्री विमर्श, नारी स्वतंत्रता और अधिकार के कोणों से निरूपमा की मौत पर हो रहे सवालों से झुंझलाहट होती है। निरूपमा के लिए हजारों आवाजें बुलंद हो रही हैं। ये महज टीआरपी बढ़ाने का फार्मूला है।  यहां हमारा मकसद आनर किलिंग के मुद्दे पर बहस करने का नहीं है, बल्कि निरूपमा के मां बनने की स्थिति तक पहुंचने और उसके बाद उसके जीवन में आये परिवर्तनों को लेकर है। 

कोई भी घटना या परिणाम किसी प्रक्रिया का हिस्साभर होता है चाहे वह गलत हो या सही। सवाल ये है कि निरूपमा की जिंदगी में जो कुछ हो रहा था या हुआ, वह सही था या गलत। हम ये कहना चाहेंगे, आप क्रांतिकारी बातें करते हुए स्त्री स्वतंत्रता, लिव इन रिलेशनशिप और निरूपमा द्वारा उठाये गये सही या गलत कदम पर बहस करते हुए जो मुगालता पाल रहे हैं, वह इसलिए है कि आपको एक ऐसा परिवेश मिला, जहां सुरक्षित जीवन था, मां-बाप हैं और जीवनयापन के लिए नौकरी है। पश्चिम जगत की तरह सहजीवन की कल्पना अगर यहां सही रूप में साकार होने लगे और व्यक्तिगत स्वतंत्रता की हामी भरनेवालों की चांदी हो जाये, तो अराजक स्थिति को संभालने के लिए कौन पहल करेगा, ये सोचिये। निरूपमा चली गयी, लेकिन वह अपने कई अनसुलझे सवालें छोड़ गयी है। जब रेडियो या टीवी पर कंडोम का खुलेआम प्रचार हो रहा हो और बहत्तर घंटे में गर्भ में उपजनेवाले जीवन को मारने की दवा सुझायी जा रही हो, तो सेक्स के मामले में दिमागी तौर पर फ्री होना स्वाभाविक है। रिपोर्ट पढ़िये, मन नहीं अकुला जाये, तो बोलियेगा। बाहर गये बेटे-बेटियों की स्थिति को लेकर शिकन न उभरे तो कहियेगा। 

सिर्फ बौद्धिक जमात में खुद को शामिल करने के लिए ये दलील दी जाती है कि बिना शादी के सहवास और उसके ऊपर तीन माह तक गर्भ धारण करने की बात एक हिम्मतवाली लड़की ही कर सकती है। मैं इसे हिम्मत नहीं, मजबूरी मानता हूं। एक गलती मानता हूं। जब आप जानते हैं कि आपके एक गलत कदम से क्या दुष्परिणाम सामने आयेंगे, तब भी आप कोई सावधानी नहीं बरतते हैं। दिल्ली जैसा शहर कितना भी आधुनिक हो जाये, लेकिन कोई भी मानस बिन ब्याही मां की बेबसी को स्वीकार करने की हिम्मत कम ही जुटा सकता है। युवा जोड़ों को पार्कों में उन्मुक्त अवस्था में आप-हम खुलेआम देख सकते हैं। स्वतंत्रता की बातें करनेवाले कभी भी एक अनुशासन की बातें क्यों नहीं करते। निरूपमा के पिता सनातम धर्म की दुहाई देकर व्यक्तिगत स्वतंत्रता में हस्तक्षेप करने की गलती जरूर की है, लेकिन सवाल ये है कि माता-पिता द्वारा दी गयी व्यक्तिगत स्वतंत्रता और भरोसे का क्या किया जाये।

भविष्य में अगर मेरी संतान किसी से अपने मन से विवाह की इच्छा जताये, तो जरूर राजी होऊंगा, लेकिन एक भरोसा ये जरूर चाहूंगा कि वह अपने अस्तित्व और प्रतिष्ठा से खिलवाड़ न करे। हर कोई अपनी संतान के लिए सुरक्षित जीवन चाहता है। मान लिजिये कि परिवार में मात्र तीन सदस्य हों और एक की मनोदशा बिगड़ जाये, साथ ही दोनों के पास समय की कमी हो, तो ये स्वतंत्रता की दुहाई देनेवाली बौद्धिक जमात क्या कभी आगे बढ़कर संभालने का आयेगी। बौद्धिक गुटरगूं से ऊपर उठिये। सोचिये और तब उगलिये। 

निरूपमा के पिता की सोच जरूर संकीर्ण है, लेकिन हमें भी स्त्री आजादी के विमर्श के बहाने अपनी संकीर्ण सोच से ऊपर उठना जरूरी है। ऐसा न हो कि विवाह नाम की संस्था ही खत्म हो जाये और बिन ब्याही माताओं की फौज खड़ी हो जाये। निरूपमा के तथाकथित मित्र 
द्वारा विवाह जैसी व्यवस्था के लिए पहल में देरी करना उसी गैर-जिम्मेवार रवैये का परिणाम है, जो कि आज की युवा पीढ़ी लगातार तथाकथित फरजी बौद्धिक जमात से ग्रहण कर रही है। अब जो समाज बन रहा है, वहां आजादी है, सोशल नेटवर्किंग है और मोबाइल है। ऐसे में तेज भागती जिंदगी में भी कई भटकाव हैं। आज के युवा जिंदगी के अनुभवों से पूर्व उन भटकावों से संभल नहीं पा रहे। 

रांची जैसे शहर में प्रेम के नाम पर जिंदगी को दांव पर लगाने की घटना आम होती जा रही है। वैसे भी लड़की, आप मानिये या मानिये, सबसे खतरनाक स्थिति में होती है। शरीर के नाम पर उसका जीवन ही दांव पर लगा रहता है। इसलिए संभलना स्त्री को ही पड़ेगा। पुरुष के लिए जिंदगी में उतना परिवर्तन मायने नहीं रखता, क्योंकि उसके शरीर को कोई नुकसान नहीं पहुंचता। इसलिए स्त्री विमर्श के बहाने घटिया बौद्धिक जुगाली से ऊपर उठिये।

Monday, May 3, 2010

निरूपमा की मौत पर प्रियभांशु से सवाल, रिश्ते को एक नाम देने में देरी क्यों की?

निरूपमा की मौत के बाद रह-रहकर एक सवाल मेरे जेहन में बार-बार आ रहा है कि इस देश में ऐसे न जाने कितने प्रियभांशु होंगे, जो अपने रिश्ते को एक नाम देने से घबराते हैं। महानगर में रहना, वहां का स्वतंत्र जीवन जीना और परिवार से दूर रहकर खुद के लक्ष्य के प्रति समर्पित रहना किसने अच्छा नहीं लगता। जरूर रहो, मजे में रहो, लेकिन उससे कई जिम्मेदारियां भी साथ जुड़ती चली जाती हैं। 
एक जिम्मेवारी ये रहती है कि आप जिससे रिश्ता रख रहे हैं, उस रिश्ते के प्रति आपमें कितना समर्पण है। जब निरूपमा को ये पता चला होगा कि उसके पेट में गर्भ है, तो क्या उसके दिल में ममता का ज्वार नहीं फूटा होगा? तब क्या उसने अपने अब तक के रिश्ते को एक कदम आगे बढ़कर विवाह जैसे संस्कार से जुड़ने की बात नहीं की होगी। सवाल ये है कि इतना लंबा समय यानी दो महीने से ज्यादा समय गर्भ धारण के गुजर जाने के बाद भी अब तक इस दिशा में कदम क्यों नहीं उठाया गया।
भले ही पश्चिम समाज की नकल करते हुए, नारी अधिकार की आवाज उठाते हुए या स्त्री के अस्तित्व के नाम पर विवाह की बात को दरकिनार करने की सौ बात की जाये, लेकिन ये सच है कि एकल मातृत्व का बोझ किसी भी महिला के लिए बड़ा कठिन होता है। वह भी तब जब खुद नौकरी करके बड़े शहर में उसे जीवनयापन करना है। ऐसे में जब रिश्ते के मामले में दो लोग इतने आगे बढ़ गये थे, तो जिंदगी भर का हमसफर बनने में बड़ी रोक क्या थी? 
हमारा मकसद ऐसी हजारों निरूपमाओं के लिए आवाज उठाना है, जो बड़े या छोटे शहरों में भावना के नाम पर ऐसे जंजाल में फंसती चली जाती हैं., जहां से निकलना कठिन हो जाता है। 

निरूपमा के मामले में उसका अंत इतना बुरा हुआ हो, लेकिन एक बात सच है कि वह अपने माता-पिता की एकलौती बेटी थी। उसकी पढ़ाई-लिखाई में कोई कोताही नहीं बरती गयी। साथ ही उसे इतनी स्वतंत्रता दी गयी कि दिल्ली जैसे बड़े शहर में जाकर वह स्वतंत्र होकर जीवनयापन कर सके। ऐसे में उसके मां-बाप का उसके प्रति पहले जो प्रेम या समर्पण था, उससे हम कैसे इनकार कर सकते हैं? 

प्रियाभांशु को इस मामले में मीडिया की ओर से भी सवाल किये जाने चाहिए कि अब तक शादी जैसा कदम उसने क्यों नहीं उठाया? जब प्रियभांशु टीवी पर न्याय की गुहार लगाता रहता है, तो लगता है कि एक सच को मीडिया छिपाने का काम कर रहा है। उससे सवाल पूछा जाना चाहिए कि उसका ये गैर-जिम्मेवार रवैया क्यों रहा? और ये सवाल बार-बार पूछा जाना चाहिए

निरूपमा आइआइएमसी की छात्रा थी, इसलिए इस मामले में मीडिया इतना सक्रिय भी हो गया, लेकिन इसके साथ सवाल उन हजारों निरूपमाओं का भी है, जो प्रियभांशु जैसे शख्स के झूठे प्रेमजाल में फंसकर अपने अस्तित्व से खिलवाड़ कर बैठती हैं।

हम बार-बार यही सवाल उठा रहे हैं कि निरूपमा के गर्भधारण के समय से जो स्थिति थी, उसमें प्रियभांशु की क्या भूमिका रही। इस मामले में मीडिया क्यों नहीं उससे सवाल जवाब कर रहा है? माता-पिता ने अगर आनर किलिंग की है, तो उन्हें सजा जरूर मिलेगी, लेकिन प्रियभांशु भी सवालों के कठघरे में है

इलेक्ट्रानिक मीडिया प्रियभांशु से एक पत्रकार होने से इतर, उसके एक युवक होने के नाते और एक रिश्ते के प्रति जिम्मेदार होने के सवाल पर सवाल-जवाब करे। नहीं तो मीडिया के रोल पर भी कई सवाल उठ खड़े हो रहे हैं। निरूपमा ने जाते-जाते समाज के सामने कई सवाल छोड़ दिये हैं। हजारों निरूपमाओं को इसी बहाने से जीवन में नया रास्ता मिले, इसका प्रयास होना चाहिए। महिला आयोग भी इस मामले में जरूर कदम उठाये कि एक महिला के अस्तित्व से खिलवाड़ करनेवाले को अब तक क्यों नहीं सवालों के घेरे में लिया गया है?

मुझे प्रियभांशु के शोकाकुल चेहरे में कोई ऐसा दर्द नजर नहीं आता, जिसके लिए मैं उसके साथ न्याय के लिए आवाज बुलंद करूं। हां निरूपमा के हत्यारों को सजा देने की
मांग जरूर करता हूं, लेकिन प्रियभांशु के साथ न्याय की गुहार लगानेवालों में कभी शामिल नहीं होऊंगा। क्योंकि मुझे ऐसे में एक वैसे शख्स का साथ देने का गुनाह नजर आता है, जो अपनी जिम्मेवारियों से लगातार भागता रहा। उसने रिश्ते के नाम पर उस लकीर को पारकर लिया,जिसके बाद एक महिला तीसरे रिश्ते मातृत्व की ओर आगे बढ़ती है। अगर रास्ते में इतनी लंबी दूरी कर ली थी, तो प्रियभांशु से सवाल वही है कि रिश्ते को एक नाम देने में देरी क्यों की।


तस्वीरें मोहल्ला लाइव से साभार...


साथ में पोस्टमार्टम रिपोर्ट की कॉपी...

Sunday, May 2, 2010

निरूपमा की मौत, दुखद, हैं कई सवाल...

पहले दिन खबर आयी कि पत्रकार निरूपमा की करंट लगने से मौत हो गयी। अब पोस्टमार्टम रिपोर्ट का इंतजार था। उसमें जिस बात का खुलासा हुआ, उससे सब सकते में थे। मामला ये था कि गला घोंटकर निरूपमा की हत्या की गयी थी। पेट में गर्भ भी था।  मामले को लेकर चाहे जितनी भी बातें की जाये, लेकिन एक पहलू ये भी है कि पेट में गर्भ लिये जिंदगी गुजार रही निरूपमा असुरक्षा के दायरे में जी रही होगी। ऐसा नहीं होगा कि उसे नहीं पता होगा और न ही उसके मित्र प्रियभांशु को या उसके घरवालों को। ऐसे में परिवारवालों ने ही ऐसा घृणित कदम उठाया या किसी और ने,  जांच का विषय है। (वैसे परिवार की भूमिका भी कई सवाल खड़े कर रही है। पहले करंट से मौत बताना और फिर ये पता चलना कि मौत दम घोंटने से हुई है).


ये जांच का भी विषय है कि कैसी परिस्थितियां निरूपमा के जीवन में बन आयी थीं कि उसे ऐसे हालात का सामना करना पड़ा।  पेट में गर्भ का पाया जाना पुरुष मित्र प्रियभांशु की भूमिका को भी संदेह के दायरे में खड़ा करता है। उनके बीच के संबंधों पर सवाल खड़े किये जाने चाहिए। 


हमें लगता है कि टीवी चैनलों या दूसरी जगहों पर मामले को इसे आनर किलिंग का बताकर फिर से उसी तरह की गलती की जा रही है, जैसा आरुषि हत्याकांड को लेकर किया गया था। निरूपमा के मीडिया जगत से नाता रखने के कारण मीडिया जरूर संवेदनशील है, लेकिन ऐसे में उसे त्वरित प्रतिक्रिया से अलग पूरी जांच को भी परखना होगा। पारिवारिक रिश्ते-नातों की जांच के बाद ही कुछ कहा जा सकेगा कि मामला क्या है? 


वर्तमान सच तो ये है कि मीडिया जगत ने एक होनहार साथी को खो दिया। किसी युवा की दर्दनाक मौत हमेशा चुभती रहती है। रह-रहकर ये बता जाती है कि मौत का किसी से अपनापन नहीं होता है। ऐसे में निरूपमा की मौत भी नहीं भूल सकनेवाली उन मौतों में शामिल हो गयी है, जिसने मानवीय संवेदना को झकझोर दिया है। और जो ये विश्वास करने को कह रही है कि ऐसी घटना परिवार के सुरक्षित दायरे में भी घट सकती है। ये पारिवारिक सुरक्षा क्यों तार-तार हो गयी, ये सोचनवाली बात है। निरूपमा की मौत के दोषियों को सजा जरूर मिले।  
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