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Monday, April 22, 2013

संकट की घड़ी है. संभलना है तो संभलिए, नहीं तो...

अपने पड़ोस में नजर डालिए. आपको कुछ अहसास होगा. अहसास ये कि आप न जाने कितनी बातों से अनजान रहते हैं. न जाने कितने परिवर्तनों से आप अब तक अछूते रहते हैं. यानी कि आसपास की गुजरती जिंदगी चुपचाप किनारे से निकल जाती है. ऐसे ही जब दिल्ली में बच्ची के साथ दुष्कर्म जैसे मामले होते हैं, तो हम थोड़े सकते में आते हैं. मीडिया भी अलर्ट हो जाता है.डाटा पेश किया जाता है. क्राइम चारों ओर नजर आने लगता है. पहले होते रहे क्राइम से अनजान थे, लेकिन अब अचानक से पूरी जानकारी लेने में जुट जाते हैं. पर ये हम सबके लिए बस चार दिन का खेला है. चार दिन बाद जिंदगी के मेले में हम फिर भूल जाएंगे सबकुछ. सच कहें तो मीडिया, नेता और हर व्यक्ति दोहरे चरित्र का जीवन जी रहा है. मीडिया जहां महिलाओं पर हो रहे अत्याचार को लेकर सजग और अलर्ट है, वहीं खुद अपनी वेबसाइट्स पर हिट पाने के लिए कई हथकंडे अपनाता नजर आता है. नेता एंगर मैनेजमेंट का तरीका अपना कर चुप्पी साध लेते हैं,तो पुलिस महकमा निलंबन और ट्रांसफर का तरीका अपनाता है. यूं कहें कि मामले पर लीपापोती कर अपना स्वार्थ साधा जाने लगता है. हम मिडिल क्लास वाले वैसे भी लोअर लेवल यानी निचले स्तर पर जी रहे लोगों से दूरी बनाए रखने में यकीन रखते हैं. आज भी निचला तबका मीडिया, एंटरटेनमेंट और एजूकेशन से महरूम है. छोटे शहर, गांव के किसान जब दिल्ली या दूसरे बड़े शहरों में जाते हैं, तो फिल्मी सपने देखते हैं. सपना देखने का हक हर किसी को है. इससे हम आप इनकार नहीं कर सकते. लेकिन जब ये सपना पूरा नहीं होता है, तो वह छोटा आदमी तिलमिला जाता है. उसका विवेक मर जाता है और वह रेप या अस्मत लूटने जैसी घटना को अंजाम दे देता है. इन सब बातों में सबसे अहम फिल्म इंडस्ट्री का नजरिया है. डायन, सेक्स और लव इन तीन थीम पर फिलहाल इनकी पूरी इमारत टिकी है. ऐसे में सनी लियोन जैसी पॉर्न स्टार को बॉलीवुड में इंट्री करा कर जब इंडियंस को उनसे परिचय कराया गया, तो उसके दूरगामी परिणाम के बारे में किसी ने भी नहीं सोचा होगा. सनी लियोन जी का नाम गुगल पर डालते ही हर किसी का उनकी जीवनी से परिचय हो जाता है. ऐसे में जो अधकचरा ज्ञान निचले तबके के लोग उनकी जीवनी को इंटरनेट पर पढ़ने के बाद पाते हैं, उसका कुप्रभाव बाद में देखने को मिलेगा ही. अब इन घटनाओं के बाद ज्यादा एनालिसिस करने की भी जरूरत नहीं है. संकट की घड़ी है. संभलना है तो संभलिए, नहीं तो...

Saturday, March 9, 2013

शायद मैं सबसे खुशनसीब हूं...

अंकल कैसे हैं? अपने क्वार्टर से नीचे उतरते वक्त ऊपर के तल्ले पर रहनेवाले पड़ोसी से टकराते ही पहला सवाल. चिर-परिचित अंदाज में हंस कर ठीक है कहना और आगे बढ़ जाना. नहीं तो परिवार या मौसम के बारे में दो बातें, शब्दों के आदान-प्रदान के बाद अपनी-अपनी राह चल निकलना. ये मेरी जिंदगी का हर रोज का पार्ट है. सुबह दस बजे आफिस के लिए निकलने के दौरान अंकल मिल ही जाते हैं.

थोड़ा बैक ग्राउंड में ले चलता हूं. कुछ महीनों पहले घर में स्पेस की कमी की वजह से मां-बाप से दूर एक बड़े से फ्लैट में बतौर किराएदार खुद को शिफ्ट कर लिया था. जिसमें मैं अपनी पत्नी और दो बेटियों के साथ रहने लगा. बड़े-बड़े कमरे, बड़ा सा अपार्टमेंट. सुख-सुविधा सारा कुछ. लेकिन वहां दस बजे निकलने के दौरान बगल में रहनेवाले पड़ोसी मुस्कान से स्वागत करते नहीं मिले. वह मिलते, टकराते और फिर अपनी राह चल निकलते. दिन, हफ्ता और महीना गुजरता चला गया. स्थिति ऐसी हो गई कि बड़े से डैम के किनारे खड़े होने के बाद भी पानी के लिए तरस रहे हों. न कोई मुस्कुराहट और न ही गुस्सा. एकदम प्रोफेशनल लोगों से भेंट मुलाकात.

रांची से शहर में जहां लोग गर्मजोशी से मिलते हैं मुझे बदलते जमाने का अहसास हुआ. मन तड़पने लगा था. अंत में एक दोस्त से इस बारे में राय जाहिर की. उसने बताया कि अगर ऐसा है, तो लौट आओ अपने उसी पुराने आशियाने में यानी मां-बाप के पास. बस वहां एक ही चीज की कमी होगी कि तुम्हें वो रूम का बड़ा स्पेस नहीं मिलेगा, लेकिन दिल का बड़ा स्पेस मिलेगा. जहां बड़े दिलवाले पड़ोसी हैं और हाय-हेलो करनेवाले चंद परिचित. हम जैसे आम लोग, जो दौड़-भाग वाली नौकरी करते हैं, वह हो रहे इन सामाजिक बदलावों से परिचित नहीं हो पाते हैं. खास कर जब उन्हें अच्छे पड़ोसी मिले हों और मुस्कुराते रहनेवाले लोग. दर्द होने के बाद भी उस पर पेन रिमूवर क्रीम लगानेवाले चंद हाथ तुरंत मिल जाते हैं. ऐसे में जब रियल सिचुएशन से सामना होता है, तो स्थिति सांप-छुछंदरवाली हो जाती है.

सेल्फ सेंटर्ड होते जा रहे लोगों से टकराने पर अवसाद में पड़ने जैसी स्थिति होने लगती है. ऐेसे ही फेसबुक पर दो हजार से ज्यादा दोस्त हैं, लेकिन अगर उनमें से किसी को चैट रूम में तकलीफ दी, तो अजब-गजब रिएक्शन अधिकांश मामलों में मिल जाएंगे. कई भड़ासी भी ऐसे मिल जाएंगे, जो अपने कमेंट्स से आपको तिलमिलाने की कोशिश करें. वे यह नहीं सोचेंगे कि इस ओपेन वर्चुअल स्पेस पर हर कमेंट हजारों निगाहों से होकर गुजरती है और ये किसी की इज्जत को चिंदी-चिंदी कर सकती है. यूं कहें कि आप बेगानेपन की स्थिति से दूर होने की कोशिश करने के लिए अगर चंद दोस्तों या परिचितों का साथ चाहेंगे, तो उसके लिए आपको भाग्यशाली बनना होगा. क्योंकि ऐसे बिरले ही लोग होंगे, जिन्हें रोज मुस्कुरा कर हाय हेलो करनेवाले पड़ोसी मिल जाएं. सौभाग्य से मुझे मिले हैं, मैं खुश हूं और आज इसे आपसे शेयर कर रहा हूं.

अगर आप थोड़ा गंभीर होकर सोचें, तो पाएंगे कि प्रोफेशनल होना जितना आसान होता है, उतना ही मुश्किल होता है किसी को स्नेह से बांधना. शायद इसी प्रोफेशनल होते माइंडसेट ने कोर्ट में तलाक के केसेज बढ़ा दिए हैं. दूसरों के लिए खुद को समर्पित करनेवाले लोग नहीं मिलते. आज कल मेरे हिसाब से पहले जैसी समर्पित मां, पिता, भाई, बहन या पत्नी कम ही मिलती हैं. ये वे लोग हैं, जो तमाम तकलीफों को सहते हुए भी आपके लिए अपनी सुविधाएं छोड़ने के लिए तैयार रहते हैं.आपकी खुशी अपनी खुशी लगती है. टूटते घर और लगातार बनती बड़ी बिल्डिगों के बीच आपके जेहन में भी ये सब बातें आती ही होगी. मुझे लगता है कि अच्छे पड़ोसी, अच्छी बेटियां, अच्छे माता-पिता और अच्छी पत्नी को पाकर मैं शायद इस दुनिया का सबसे खुशनसीब इंसान हूं, तो ये गलत नहीं होगा. ईश्वर से कोई शिकायत नहीं. अब शिकायत सिर्फ उन लोगों से है, जिन्होंने प्रोफेशनल होने का ढोंग कर अपने जैसों की संख्या ज्यादा कर ली है और इसे बदलते जमाने का नाम दे दिया है.   

Tuesday, August 28, 2012

क्या आपको ये 'दुनिया' बेचैन नहीं करती


आज हर कोई एक बेहतर करियर चाहता है. बच्चे के जन्म से लेकर उसके ग्रेजुएट होने तक मां-बाप रात दिन लगे रहते हैं. मैं भी ऐसे कई माता-पिता को जानता हूं. जिन्होंने ९० के दशक में अपने सारे सामाजिक काम सिर्फ बच्चों की खुशियों के कुर्बान कर दिया. उन्होंने एक पाठ सिखाया-बेटा सिर्फ पढ़. अगल-बगल मत देख, नहीं तो बिगड़ जाओगे. उनमें से कई बच्चे आज कामयाब हैं, लेकिन उनकी कामयाबी उनके मां-बाप के हिस्से से दूर है. मां-बाप को हर रोज आठ बजे सिर्फ एक फोन का इंतजार रहता है, बेटा आफिस जाने से पहले बस एक घंटी बजाकर बोलता है-मां-पपा ठीक हूं. आप ठीक हैं ना. मां-बाप दिल में सिर्फ ये संतोष रखकर जी लेते हैं कि बेटा हर दिन कामयाबी की सीढ़ी चढ़ रहा है. लेकिन उसे बेटे या बेटी के पास अपने माता-पिता के दर्द के लिए समय है ही नहीं.

रिश्तों का दरकता संसार अंदर से तोड़ रहा है.  आप कभी गांव गए हैं क्या? खासकर बिहार के गांव. जहां आपको बूढ़े मां-बाप किसी पेड़ के नीचे अपने बच्चे से फोन पर बतियाते मिल जाएंगे. घर के घर खाली हैं. वहां रहनेवाले बाहर मोटी कमाई कर रहे हैं. पता चला है कि उनके एकमात्र चिराग ने अपनी धर्मपत्नी ढूंढ़ ली है और अब उसी दिल्ली या मुंबई में एक घर भी खरीदनेवाला है. यानी गांव का घर, गांव की जमीन भगवान भरोसे हो चली. आप सोच रहे होंगे कि ये बंदा क्या बके जा रहा है. ये तो दुनियादारी में चलता है. लेकिन यार ये कैसी दुनियादारी, कैसी यारी. अपने बच्चे, अपने ही मां-बाप से दूर रहकर सपनों की नई दुनिया रच रहे हैं. एक खुदगर्ज दुनिया. जहां दीवारों पर नई पेंटिंग और नई एलइडी टीवी तो है, लेकिन अपनापन नहीं. सिटी के ओल्ड एज होम में चले जाइए. कई बुजुर्ग गर्व से पांच-पांच संतानों के होने का दावा करेंगे, लेकिन अगले ही पल उनकी आंखें शून्य में कुछ टटोलती नजर आएंगी.

हमारे शहर और हमारे गांव में एक जो अनजानी दुनिया खुद ब खुद हम लोगों के तिरस्कार के कारण बनती जा रही है, उसे जानने या समझने की चेष्टा किसी को नहीं है. जीवन के संघर्ष को समझना मुश्किल है. लेकिन रिटायर्ड हर्ट हुए क्रिकेटर लक्षमण के शब्दों को समझिए, जो उन्होंने अपने पिता से सीखा और समझा. उनके पिता ने कहा कि मानव जीवन में कहीं न कहीं संतोष होना चाहिए. एक ऐसा संतोष, जो आपको और आपके अपनों को एक स्थायी दुनिया दे. जहां न तो दूरी की बेचैनी हो और न कोई बेगानापन. शहर तो बनते और बिगड़ते रहते हैं. लेकिन दिलो की दूरियां एक बार बढ़ जाएं, तो उसे पाटना मुश्किल है. हम जानते हैं कि हम सबके भीतर कहीं न कहीं आग जल रही है, लेकिन उस आग को हवा देने की कोशिश नहीं होती. थोड़ी सी कोशिश हो, तो ये जो ओल्ड एज प्रॉब्लम है, जिसे शायद आमिर का सत्यमेव जयते भी सुधार न पाए, कुछ हद तक ठीक हो सकती है.

सबसे खतरनाक है मुर्दा शांति से भर जाना, न होना तड़प का, सब सहन कर जाना घर से निकलना काम पर और काम से लौटकर घर आना, सबसे खतरनाक है हमारे सपनों का मर जाना!
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