Showing posts with label old age. Show all posts
Showing posts with label old age. Show all posts

Tuesday, August 28, 2012

क्या आपको ये 'दुनिया' बेचैन नहीं करती


आज हर कोई एक बेहतर करियर चाहता है. बच्चे के जन्म से लेकर उसके ग्रेजुएट होने तक मां-बाप रात दिन लगे रहते हैं. मैं भी ऐसे कई माता-पिता को जानता हूं. जिन्होंने ९० के दशक में अपने सारे सामाजिक काम सिर्फ बच्चों की खुशियों के कुर्बान कर दिया. उन्होंने एक पाठ सिखाया-बेटा सिर्फ पढ़. अगल-बगल मत देख, नहीं तो बिगड़ जाओगे. उनमें से कई बच्चे आज कामयाब हैं, लेकिन उनकी कामयाबी उनके मां-बाप के हिस्से से दूर है. मां-बाप को हर रोज आठ बजे सिर्फ एक फोन का इंतजार रहता है, बेटा आफिस जाने से पहले बस एक घंटी बजाकर बोलता है-मां-पपा ठीक हूं. आप ठीक हैं ना. मां-बाप दिल में सिर्फ ये संतोष रखकर जी लेते हैं कि बेटा हर दिन कामयाबी की सीढ़ी चढ़ रहा है. लेकिन उसे बेटे या बेटी के पास अपने माता-पिता के दर्द के लिए समय है ही नहीं.

रिश्तों का दरकता संसार अंदर से तोड़ रहा है.  आप कभी गांव गए हैं क्या? खासकर बिहार के गांव. जहां आपको बूढ़े मां-बाप किसी पेड़ के नीचे अपने बच्चे से फोन पर बतियाते मिल जाएंगे. घर के घर खाली हैं. वहां रहनेवाले बाहर मोटी कमाई कर रहे हैं. पता चला है कि उनके एकमात्र चिराग ने अपनी धर्मपत्नी ढूंढ़ ली है और अब उसी दिल्ली या मुंबई में एक घर भी खरीदनेवाला है. यानी गांव का घर, गांव की जमीन भगवान भरोसे हो चली. आप सोच रहे होंगे कि ये बंदा क्या बके जा रहा है. ये तो दुनियादारी में चलता है. लेकिन यार ये कैसी दुनियादारी, कैसी यारी. अपने बच्चे, अपने ही मां-बाप से दूर रहकर सपनों की नई दुनिया रच रहे हैं. एक खुदगर्ज दुनिया. जहां दीवारों पर नई पेंटिंग और नई एलइडी टीवी तो है, लेकिन अपनापन नहीं. सिटी के ओल्ड एज होम में चले जाइए. कई बुजुर्ग गर्व से पांच-पांच संतानों के होने का दावा करेंगे, लेकिन अगले ही पल उनकी आंखें शून्य में कुछ टटोलती नजर आएंगी.

हमारे शहर और हमारे गांव में एक जो अनजानी दुनिया खुद ब खुद हम लोगों के तिरस्कार के कारण बनती जा रही है, उसे जानने या समझने की चेष्टा किसी को नहीं है. जीवन के संघर्ष को समझना मुश्किल है. लेकिन रिटायर्ड हर्ट हुए क्रिकेटर लक्षमण के शब्दों को समझिए, जो उन्होंने अपने पिता से सीखा और समझा. उनके पिता ने कहा कि मानव जीवन में कहीं न कहीं संतोष होना चाहिए. एक ऐसा संतोष, जो आपको और आपके अपनों को एक स्थायी दुनिया दे. जहां न तो दूरी की बेचैनी हो और न कोई बेगानापन. शहर तो बनते और बिगड़ते रहते हैं. लेकिन दिलो की दूरियां एक बार बढ़ जाएं, तो उसे पाटना मुश्किल है. हम जानते हैं कि हम सबके भीतर कहीं न कहीं आग जल रही है, लेकिन उस आग को हवा देने की कोशिश नहीं होती. थोड़ी सी कोशिश हो, तो ये जो ओल्ड एज प्रॉब्लम है, जिसे शायद आमिर का सत्यमेव जयते भी सुधार न पाए, कुछ हद तक ठीक हो सकती है.

सबसे खतरनाक है मुर्दा शांति से भर जाना, न होना तड़प का, सब सहन कर जाना घर से निकलना काम पर और काम से लौटकर घर आना, सबसे खतरनाक है हमारे सपनों का मर जाना!
Prabhat Gopal Jha's Facebook profile

LinkWithin

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...

अमर उजाला में लेख..

अमर उजाला में लेख..

हमारे ब्लाग का जिक्र रविश जी की ब्लाग वार्ता में

क्या बात है हुजूर!

Blog Archive