Wednesday, September 22, 2010

कश्मीर के दिल की सुनिये भाई लोग

हमारे जैसे लोग जो कश्मीर नहीं गए, उनके सामने कश्मीर को लेकर एक अलग ही तस्वीर हैं. हिंसा और अराजकता से त्रस्त कश्मीर. कश्मीर ज कभी स्वर्ग कहलाता था, उसके नरक बनने की तस्वीर. हाल के दिनों में अखबारों में पत्थर फेंकते युवाओं की तस्वीर छप रही है. बड़ी-बड़ी तस्वीर . ये कश्मीर के हिंसा के उस पहलू को दर्शाता है, जहां के लोग मरने-मिटने को बेताब है. सिक्योरिटी फोर्सेस को चुनौती दे रहे हैं. पत्थरबाजी करते हैं.

इन सब गुस्से के बीच डेलिगेशन होममिनिस्टर के साथ कश्मीर जाता है. उनसे मिलता है. वहां के लोग अपने दर्द को सामने रखते हैं. टीवी पर ही  जेटली से एक व्यक्ति कहता है कि आप कहते हैं. हम आपके हैं. यानी एक शरीर के हम भी अंग है. अगर आपके शरीर में हाथ जलता है, तो आप छटपटाते हैं. लेकिन यहां हम मर रहे हैं और आपको दर्द नहीं होता. हम क्या आपके लिए बेगाने हैं.

बेगानेपन का ये अहसास उस टीवी दर्शक के दिल में तीर की तरह लगता है, जो ये मानता है कि कश्मीर उसके देश का हिस्सा है और ये है भी. एक बुजुर्ग चिदंबरम और जेटली से प्रार्थना करते हैं कि हर बात में पाकिस्तान को बीच में ना लाए. हमारा अपना दर्द है.

ये चंद लफ्ज शायद उन तमाम सियासी बयानबाजी को किनारे कर देते हैं, जिनकी बदौलत हम कश्मीर को लेकर जेहन में एक तस्वीर खींच डालते हैं. ये देखना जरूरी है कि कश्मीर के साथ हमारे देश की सियासत का संवाद कहां कम या खत्म हो गया. क्या जरूरत पड़ गयी कि वे हमारे अपने नहीं रहे? हमारी बहस के केंद्र पाकिस्तान के सारे वे मुद्दे हो सकते हैं, जो अतीत से हमारे पीछे पड़े हैं.

हम जब कश्मीर को अपना मानते हैं, तो कश्मीर में दिल की बात क्यों नहीं करते. हम उन तमाम हिंसात्मक दलीलों को पीछे छोड़ते हुए उन्हें ये क्यों नहीं बता पाते कि आप हमारे हैं. दिल से निकली हर आवाज सुनी  जाती है. हम उनसे दिल का रिश्ता जोड़ें. वे हमारे भाई बंधु हैं, ये उनके दिमाग और दिल में डालें. नफरत की सियासत आखिर कितने दिनों तक चलेगी.

दिल की बात करने के लिए कई बहाने हो सकते हैं, जैसे खेल, कल्चर, पढ़ाई और रोजगार का सृजन. सरकारी कामों में कश्मीरियों की भागीदारी. हर वो चीज, जिससे कश्मीर के बंदे को लगे कि हमारे दिलो-दिमाग में उनके लिए कितना चिंता है. एक रिपोर्ट पढ़ रहा था कि कश्मीर में पानी की तरह पैसा बहाया गया, लेकिन कश्मीर बदहाल है. केंद्र को ये मानकर चलना होगा कि हर चीज पैसे से नहीं हो सकती.

हम उनसे गोलियों की बातें ना करें. उनके दिल की आवाज सुनें. पहली बार शायद सत्ता और विपक्ष के प्रतिनिधि एक साथ कश्मीरियों का दर्द सुन रहे थे. टीवी पर इस बंदे को चाय की चुस्कियों के साथ मसले पर बातचीत के नजारे दिखे. अभी का दौर कश्मीर के पुराने लीडरों को सुनने का भी नहीं है.

ये दौर उन जवान हो चुके लोगों की जज्बातों का सुनने का भी है, जो ९० से लेकर अब तक कश्मीर को सिर्फ जलते हुए देखते आए हैं. उन्हें विकास का सपना दिखाना जरूरी है. उन्हें ये उम्मीद बंधवाना जरूरी है कि ये देश उन्हें वो सबकुछ दे सकता है, जो वे चाहते हैं. दिल की सुनिये और दिल की सुनाइये, ये अहम है. पाकिस्तान का जो होना होगा, होगा. उसके चक्कर में अपना नसीब क्यों खराब करें.

3 comments:

भारतीय नागरिक - Indian Citizen said...

यदि पूरे देश के हिन्दू युवा अपने दिल की बात सामने रखने के लिये यही रास्ता अख्तियार कर लें फिर...

पद्म सिंह said...

यूँ कहिये पाकिस्तान के दिल की सुनिए :}

शरद कोकास said...

यह सार्थक व सामयिक चिंतन है ।

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