एक निर्णय को लेकर सबसे ज्यादा परेशान मीडिया है. मीडिया के लोग सबसे ज्यादा परेशान रहनेवाले लोगों में से एक हैं. हजारों पन्नों के जजमेंट को एक दिन में निष्कर्ष निकाल कर उस पर विवेचना करने लगे हैं. ये साली नौकरी का टेंशन भी अजीब है. बेचारे रिपोर्टर चूंकि चैनल चलानी है, तो कुछ भी बेतुका या टेंशन क्रिएट करनेवाला शब्द अनाप-शनाप बोलते चले जाते हैं. कोई भी चैनल हो, समझदार वकील और नेता, ये जरूर कहते हैं कि हमें कुछ भी कहने से पहले जजमेंट पढ़ लेनी चाहिए. मुझे एक अंगरेजी चैनल के इस रवैये पर आश्चर्य होता है कि वह एक बेहद गंभीर चैनल होने का दावा करने के बाद भी जजमेंट का छिछालेदार करने में जुटा है.
अगर आदर्शवाद की कल्पना किया जाये, तो मीडिया किस पहलू या पक्ष में जजमेंट चाहता. क्या पूरा जजमेंट किसी एक समुदाय के पक्ष में हो जाना चाहिए था. फेसबुक पर भी कई लोग बुद्धिमान बनते हुए मुसलमानों के साथ अन्याय होने का दंभ भरते हुए कोर्ट के जजमेंट पर सवाल दाग रहे हैं. पूरे ६० सालों के बाद एक जजमेंट आता है. पूरे ६० सालों के बाद. आज तक किसी भी व्यक्ति को इसके समाधान के लिए कोई रास्ता नहीं सुझा. अब जब एक विकल्प उभरा है, तो इसे धर्म के नाम पर ऐसा मोड़ा जा रहा है कि जजमेंट, जजमेंट न होकर बहसबाजी का मुद्दा हो गया है.
समस्याएं कई हैं. समस्याओं को सुलझाने का नजरिया भी कई प्रकार का है. यहां कई लोग ऐसे भी हैं, जो निरूपमा मामले से लेकर बाबरी मस्जिद तक को खुद के प्रचार के तौर पर इस्तेमाल करते हैं. कई बातें बहस या समय से परे होती हैं. जो व्यक्ति १९९२ में जन्मा होगा, उसके लिए आज बाबरी मस्जिद के क्या मायने होंगे. सच कहूं, तो मेरी स्थिति भी ७४ के आंदोलन को लेकर वैसी ही थी. उस आंदोलन को लेकर इतना ही जान पाया था कि उस आंदोलन ने चंद मठाधीश नेता पैदा किए और पूरे एजूकेशन सिस्टम का सेशन लेट हो गया. तीन साल की पढ़ाई पांच साल में पूरी होती रही. बाबरी विध्वंस के बाद मार-काट, दंगा-फसाद, बांबे फिल्म का बैकग्राऊंड, बस यही सब याद आता है. एक जवान व्यक्ति जिंदगी में तरक्की और रोजगार चाहता है. उसे इन जमीन और धर्म के निर्णय से कोई मतलब नहीं है. अस्पतालों में बीमार व्यक्ति को दवा चाहिए. उसे धर्म की घुट्टी पिलाइयेगा, तो वह चिल्लायेगा ही.
ये देश अभी बीमार है. कलमाडी साहब के कामनवेल्थ की नौटंकी या घोटाले से मन नहीं भरा, तो धर्म का बवाल लेकर बैठ गए. इसमें आश्चर्य की ही क्या है, जब देश के चंद अवसरवादी आंखों में धूल झोंक कर फायदा उठाते रहते हैं. धर्म को लेकर एकता का राग अलापनेवाले भी कम दोषी नहीं. ऐसा कर वे करोड़ों दिलों में न चाहते हुए भी संवेदनशीलता का बीज बो रहे हैं. जिन जवान लोगों को इन चीजों या विवादों से मतलब नहीं, अब वे भी इतिहास के पन्नों को टटोलते हुए बाबरी मस्जिद के इतिहास को जानने लगेंगे.
करोड़ों लोगों की जिंदगी को एक ताकत चाहिए. आज एक भी ऐसा लीडर नहीं है, जो सही चीजों या मामलों को रखे. सबसे बड़ा मामला यही है कि कोर्ट का ये जजमेंट एक बड़े वर्ग को पच ही नहीं रहा है. इसमें खासकर अंगरेजी मीडिया और उसके वे लोग शामिल हैं, जो सेक्यूलर होने का दावा करते हैं. केवल एक पक्ष की बातें करना सेक्यूलर होने की पहचान नहीं है. ये देश उन सारे सेक्यूलरवादियों की थोथी दलीलों का गलत परिणाम भुगत रहा है, जो जाने-अनजाने सत्ता की सीढ़ियों पर चढ़ते चले गए. ये जजमेंट कम से कम एक आधार तो दे गया कि आप इस आधार पर सहमति की मीनार खड़ी कर सकते हैं.
हमें हमेशा मन में सवाल कुरेदता है कि उस ऊपरवाले का क्या धर्म है. अगर हम उसके संतान हैं, तो वह हमें कैसे विभाजित करेगा. कोई राम बोले या रहीम, क्या फर्क पड़ता है. फर्क तो धरती पर उन चंद बददिमाग लोगों की पहल से होता है, जो हर हाल में ये विवाद जारी रखना चाहते हैं. ये जो लोग आज सुबह तक एकता का राग अलापते रहे, वे दंतेवाड़ा एपिसोड के समय सानिया मिर्जा के ब्याह के लिए ज्यादा कलपते रहे, बनिस्पत की शहीद परिवारों का हालचाल जानने के लिए. इन बददिमागों के बारे में कितना लिखा जाए या कहा जाए. मीडिया के नाम पर हम मीडिया के लोग खुद को नंगा करते चले जा रहे हैं. दर्शक सब कुछ समझ रहा है. जिस दिन उसके सब्र का बांध टूटेगा, आपकी स्वतंत्रता या आपकी बोली गिरवी रह जाएगी. मीडिया भी चेते.
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2 comments:
दर्शक सब कुछ समझ रहा है. जिस दिन उसके सब्र का बांध टूटेगा, आपकी स्वतंत्रता या आपकी बोली गिरवी रह जाएगी
इसके लिये उसे "मूक दर्शक " की परिभाष से मुक्त होना होगा ।
किसी दिन कोई दर्शक इन्हें ठीक से समझा देगा. अगर यही फैसला मुस्लिमों के पक्ष में जाता तो इनकी कतई हिम्मत न होती छीछालेदर करने की और करते तो अब तक दिमाग ठिकाने लगा दिये गये होते. दम है इनमें तो शाहबानो केस की बात करें, उस प्रोफेसर की बात करें जिसके हाथ काट दिये गये, उन कार्टूनों को कला के नाम पर दिखायें जिन्हें डेनमार्क में बनाया गया..
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