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Sunday, August 14, 2011

रीजनल जर्नलिज्म, नेशनल, मीडिया और अन्ना हजारे

आज स्वतंत्रता दिवस है. वही भाषणबाजी, वही देशभक्ति के गीत और फिर कल से वही अपना पुराना राग. फिर न रहेगी देश की चिंता और न अपने समाज या राज्य की. लेकिन ये दिन हमें अपने हिसाब से मनन करने का वक्त देता है. एक ठहराव देता है. जब आप पीछे मुड़कर अपने प्रोफेशन और खुद के साथ-साथ देश-समाज के लिए बरती जा रही ईमानदारी की समीक्षा करें. संडे को ऐसा ही मौका था. मौका था प्रभात खबर के स्थापना दिवस पर रीजनल जर्नलिज्म पर वर्कशॉप का. बड़े-बड़े लोग आमंत्रित थे. रीजनल जर्नलिज्म में इनोवेशन कैसे हो या इसका आगे क्या स्वरूप होगा, इसे लेकर गंभीर मंथन के लिए लोग आमंत्रित थे. होटल रेडिशन ब्लू का सभागार खचाखच भरा था.


ऐसा लगता है कि आज-कल का दौर आइडेंटिटी क्राइसिस का दौर है. ये एक ऐसा दौर है, जिसमें सबको अपनी आइडेंटिटी की पड़ी है. ऐसे में रीजनल जर्नलिज्म भी उसी की एक देन है. नेट और फास्ट होते जा रहे कम्युनिकेशन के जमाने में रीजनल का कांसेप्ट कहां तक उचित या तर्कसंगत है, इस पर विचार करने की जरूरत है. जब ब्रिटेन की घटना या मिस्र का आंदोलन सिर्फ चंद घंटों में दुनिया भर में छा जाता है. बिहार में कहीं किसी कोने में एक कमेंट दूर कहीं जलजले पैदा करता है. फेसबुक जैसे माध्यम के सहारे अन्ना के आंदोलन की लड़ाई लड़ी जा रही है. और हर अखबार अपना इ पेज नेट पर डाउनलोड करने तक की सुविधा देता है, जिससे सऊदी अरब में बैठा व्यक्ति भी पेज को देख और पढ़ सकता है, तो किसी वस्तु या कांसेप्ट को रीजन में कैसे समेट सकते हैं.

कम से कम हिंदी बेल्ट का भी हर अखबार हर राज्य में अपनी मौजूदगी का अहसास करा रहा है, तो ये रीजनलिज्म का कांसेप्ट तो यूं ही फेल हो जाता है. कल के वर्कशॉप में मंच पर मौजूद हर वक्ता कंटेट को लेकर चिंतित था. बाजार में बढ़ते पूंजी के दबाव को गलत करार दे रहा था. लेकिन अंत में फिर बहस उसी फंडिंग पर आकर टिक गयी. आखिर फंडिंग कहां से हो. अखबार या चैनल को चलाने का जो दबाव है और उसके लिए पूंजी जुटाने का जो प्रोसेस है, वो इतना टेंशन भरा हो गया है कि बड़े खिलाड़ी भी इस फील्ड में आने से पहले सोचते होंगे. इसी फंडिंग या बाजार में टिके रहने का दबाव था कि ब्रिटेन के सबसे पुराने टेबलायड न्यूज आफ द वर्ल्ड के पत्रकारों ने रिपोर्टिंग के लिए हर गलत हथकंडा अपनाया. हमारे देश में भी चुनाव के वक्त पन्नों के बेचे जाने की चर्चा हर कोई कर रहा है. यहां तक कि मंच पर भी मिश्रित मुस्कान के साथ चर्चा के दौरान प्रायः सबने स्वीकार किया. आखिर सिर्फ कोई विचार पूंजी से क्यों संचालित होता है.

चाणक्य का एक कथन है कि अगर राजा नियंत्रण से बाहर हो, तो राजा के विचारों पर नियंत्रण करो. और उसे विचार देनेवाले व्यक्ति को नियंत्रित करो. ऐसे में मीडिया को इनडायरेक्टली कंट्रोल करने की कोशिश हो रही है. ये कोशिश इसके सहारे सत्ता को बदलने की भी है. मीडिया में जो लोग हैं, उन्हीं के माध्यम से सत्ता या व्यवसाय में जोड़-तोड़ का सिलसिला भी जारी है. ऐसा नहीं होता, तो राडिया केस में कई नाम नहीं उछाले जाते. वर्कशॉप के दौरान सबसे महत्वपूर्ण बात यह हुई कि किसी अखबार ने पहली बार खुल कर चर्चा करने की सोची.



वरिष्ठ पत्रकार प्रमोद जोशी ने जो सबसे पते की बात कही, वो ये है कि हमारे यहां नए पत्रकारों की ट्रेनिंग और उन्हें समझाने और बदलते ट्रेंड को जानने-समझाने के लिए एक व्यवस्था होनी चाहिए. उन्होंने पते की बात कही कि न्यू जेनरेशन के जर्नलिस्ट और पुराने जेनरेशन के जर्नलिस्ट के बीच एक कम्युनिकेशन गैप है. अब अखबारों में सिखानेवाले नहीं बचे और जो बचे हैं, वो सिखाने की स्थिति में नहीं हैं. वैसे भी ये त्रासदी एक दिन में नहीं हुई है. खास कर हिंदी मीडिया में जहां औसत आदमी ही पत्रकार बनते या बनाए जाते हैं, क्योंकि जिस प्रकार का कम वेतन नए पत्रकारों को दिया जाता है, उसमें कैसे किसी प्रतिभाशाली व्यक्ति को आने के लिए प्रेरित कर सकते हैं. क्योंकि आज कल उससे कम या उतनी ही मेहनत कर कोई युवक दूसरे फील्ड में सम्मानजनक स्थिति पा सकता है. जो एवरेज सैलरी १० या १४ हजार प्रिंट मीडिया में शुरुआती दौर में मिलते हैं, वो तो अब दूसरे फील्ड में सबसे कमतर सैलरी से भी कम है.

सवाल वही है कि आप जब इनोवेशन की बात करते हैं, तो परिवर्तन की बात करते हैं. परिवर्तन अंदर से हो. उथल-पुथल तो मची है. नहीं तो वर्कशॉप के दौरान अन्ना आंदोलन के मुद्दे पर दो दिग्गज विषय से भटक कर अन्ना आंदोलन पर एक-दूसरे की काट नहीं करते. अन्ना को मीडिया का इतना साथ देना चाहिए या नहीं, ये भी बहस का विषय है. लेकिन एक बात और है कि इंडियन मीडिया मार्केट के हिसाब से बोलता है. अगर पाक विदेश मंत्री हिना आयीं, तो वो यहां छा गयीं. विदेश मसले से ज्यादा उनकी खूबसूरती पर चर्चे होते रहे.


अन्ना को लेकर भी इंडियन मीडिया मानिया का शिकार हो गया है. वो कंफ्यूज है. कंफ्यूज आम आदमी भी है. वो बाबा रामदेव का समर्थन करे या अन्ना का. वैसे भी एक सवाल तो है कि अन्ना के अगल-बगल जो आदमी हैं, वो क्या देश के १२० में ६० करोड़ लोगों का भी समर्थन करते हैं क्या? क्या उन्होंने अपने घर से ट्रांसपरेंट होने की शुरुआत की है. मीडिया शायद इन सवालों को जानने की कोशिश नहीं करता. क्योंकि वो तो जंतर-मंतर के चारों ओर ही रिपोर्टिंग करने में अपनी भलाई समझता है. जैसा कि एक कुआं का मेढक बस कुएं तक सिमट जाता है.

एज ए मीडिया पर्सन आज न तो मैं बाबा रामदेव के साथ हू. न अन्ना हजारे के साथ और न कपिल सिब्बल के. अब हमारे जैसे आदमी को भी, जो एक पत्रकार है, मीडिया में जारी बहस से राह निकलती नजर आती है. वक्त कम है और काम ज्यादा है. रीजनल नहीं, नेशनल जर्नलिज्म की बात करते हुए खुद को मजबूत कीजिए. क्योंकि देश और समय काफी आगे निकल गया है. जिनमें समय से आगे देखने की ताकत होती है, वही बदलाव भी लाते हैं.



(सारे मेरे निजी विचार हैं... इससे अन्य किसी व्यक्ति या संस्थान का लेना-देना नहीं है..)

Friday, October 1, 2010

गंभीर चैनल जजमेंट का छिछालेदार करने में जुटा है.

एक निर्णय को लेकर सबसे ज्यादा परेशान मीडिया है. मीडिया के लोग सबसे ज्यादा परेशान रहनेवाले लोगों में से एक हैं. हजारों पन्नों के जजमेंट को एक दिन में निष्कर्ष निकाल कर उस पर विवेचना करने लगे हैं. ये साली नौकरी का टेंशन भी अजीब है. बेचारे रिपोर्टर चूंकि चैनल चलानी है, तो कुछ भी बेतुका या टेंशन क्रिएट करनेवाला शब्द अनाप-शनाप बोलते चले जाते हैं. कोई भी चैनल हो, समझदार वकील और नेता, ये जरूर कहते हैं कि हमें कुछ भी कहने से पहले जजमेंट पढ़ लेनी चाहिए. मुझे एक अंगरेजी चैनल के इस रवैये पर आश्चर्य होता है कि वह एक बेहद गंभीर चैनल होने का दावा करने के बाद भी जजमेंट का छिछालेदार करने में जुटा है.
अगर आदर्शवाद की कल्पना किया जाये, तो मीडिया किस पहलू या पक्ष में जजमेंट चाहता. क्या पूरा जजमेंट किसी एक समुदाय के पक्ष में हो जाना चाहिए था. फेसबुक पर भी कई लोग बुद्धिमान बनते हुए मुसलमानों के साथ अन्याय होने का दंभ भरते हुए कोर्ट के जजमेंट पर सवाल दाग रहे हैं. पूरे ६० सालों के बाद एक जजमेंट आता है. पूरे ६० सालों के बाद. आज तक किसी भी व्यक्ति को इसके समाधान के लिए कोई रास्ता नहीं सुझा. अब जब एक विकल्प उभरा है, तो इसे धर्म के नाम पर ऐसा मोड़ा जा रहा है कि जजमेंट, जजमेंट न होकर बहसबाजी का मुद्दा हो गया है.
समस्याएं कई हैं. समस्याओं को सुलझाने का नजरिया भी कई प्रकार का है. यहां कई लोग ऐसे भी हैं, जो निरूपमा मामले से लेकर बाबरी मस्जिद तक को खुद के प्रचार के तौर पर इस्तेमाल करते हैं. कई बातें बहस या समय से परे होती हैं. जो व्यक्ति १९९२ में जन्मा होगा, उसके लिए आज बाबरी मस्जिद के क्या मायने होंगे. सच कहूं, तो मेरी स्थिति भी ७४ के आंदोलन को लेकर वैसी ही थी. उस आंदोलन को लेकर इतना ही जान पाया था कि उस आंदोलन ने चंद मठाधीश नेता पैदा किए और पूरे एजूकेशन सिस्टम का सेशन लेट हो गया. तीन साल की पढ़ाई पांच साल में पूरी होती रही. बाबरी विध्वंस के बाद मार-काट, दंगा-फसाद, बांबे फिल्म का बैकग्राऊंड, बस यही सब याद आता है. एक जवान व्यक्ति जिंदगी में तरक्की और रोजगार चाहता है. उसे इन जमीन और धर्म के निर्णय से कोई मतलब नहीं है. अस्पतालों में बीमार व्यक्ति को दवा चाहिए. उसे धर्म की घुट्टी पिलाइयेगा, तो वह चिल्लायेगा ही.
ये देश अभी बीमार है. कलमाडी साहब के कामनवेल्थ की नौटंकी या घोटाले से मन नहीं भरा, तो धर्म का बवाल लेकर बैठ गए. इसमें आश्चर्य की ही क्या है, जब देश के चंद अवसरवादी आंखों में धूल झोंक कर फायदा उठाते रहते हैं. धर्म को लेकर एकता का राग अलापनेवाले भी कम दोषी नहीं. ऐसा कर वे करोड़ों दिलों में न चाहते हुए भी संवेदनशीलता का बीज बो रहे हैं. जिन जवान लोगों को इन चीजों या विवादों से मतलब नहीं, अब वे भी इतिहास के पन्नों को टटोलते हुए बाबरी मस्जिद के इतिहास को जानने लगेंगे.
करोड़ों लोगों की जिंदगी को एक ताकत चाहिए. आज एक भी ऐसा लीडर नहीं है, जो सही चीजों या मामलों को रखे. सबसे बड़ा मामला यही है कि कोर्ट का ये जजमेंट एक बड़े वर्ग को पच ही नहीं रहा है. इसमें खासकर अंगरेजी मीडिया और उसके वे लोग शामिल हैं, जो सेक्यूलर होने का दावा करते हैं. केवल एक पक्ष की बातें करना सेक्यूलर होने की पहचान नहीं है. ये देश उन सारे सेक्यूलरवादियों की थोथी दलीलों का गलत परिणाम भुगत रहा है, जो जाने-अनजाने सत्ता की सीढ़ियों पर चढ़ते चले गए. ये जजमेंट कम से कम एक आधार तो दे गया कि आप इस आधार पर सहमति की मीनार खड़ी कर सकते हैं.
हमें हमेशा मन में सवाल कुरेदता है कि उस ऊपरवाले का क्या धर्म है. अगर हम उसके संतान हैं, तो वह हमें कैसे विभाजित करेगा. कोई राम बोले या रहीम, क्या फर्क पड़ता है. फर्क तो धरती पर उन चंद बददिमाग लोगों की पहल से होता है, जो हर हाल में ये विवाद जारी रखना चाहते हैं. ये जो लोग आज सुबह तक एकता का राग अलापते रहे, वे दंतेवाड़ा एपिसोड के समय सानिया मिर्जा के ब्याह के लिए ज्यादा कलपते रहे, बनिस्पत की शहीद परिवारों का हालचाल जानने के लिए. इन बददिमागों के बारे में कितना लिखा जाए या कहा जाए. मीडिया के नाम पर हम मीडिया के लोग खुद को नंगा करते चले जा रहे हैं. दर्शक सब कुछ समझ रहा है. जिस दिन उसके सब्र का बांध टूटेगा, आपकी स्वतंत्रता या आपकी बोली गिरवी रह जाएगी. मीडिया भी चेते.
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