आज स्वतंत्रता दिवस है. वही भाषणबाजी, वही देशभक्ति के गीत और फिर कल से वही अपना पुराना राग. फिर न रहेगी देश की चिंता और न अपने समाज या राज्य की. लेकिन ये दिन हमें अपने हिसाब से मनन करने का वक्त देता है. एक ठहराव देता है. जब आप पीछे मुड़कर अपने प्रोफेशन और खुद के साथ-साथ देश-समाज के लिए बरती जा रही ईमानदारी की समीक्षा करें. संडे को ऐसा ही मौका था. मौका था प्रभात खबर के स्थापना दिवस पर रीजनल जर्नलिज्म पर वर्कशॉप का. बड़े-बड़े लोग आमंत्रित थे. रीजनल जर्नलिज्म में इनोवेशन कैसे हो या इसका आगे क्या स्वरूप होगा, इसे लेकर गंभीर मंथन के लिए लोग आमंत्रित थे. होटल रेडिशन ब्लू का सभागार खचाखच भरा था.
ऐसा लगता है कि आज-कल का दौर आइडेंटिटी क्राइसिस का दौर है. ये एक ऐसा दौर है, जिसमें सबको अपनी आइडेंटिटी की पड़ी है. ऐसे में रीजनल जर्नलिज्म भी उसी की एक देन है. नेट और फास्ट होते जा रहे कम्युनिकेशन के जमाने में रीजनल का कांसेप्ट कहां तक उचित या तर्कसंगत है, इस पर विचार करने की जरूरत है. जब ब्रिटेन की घटना या मिस्र का आंदोलन सिर्फ चंद घंटों में दुनिया भर में छा जाता है. बिहार में कहीं किसी कोने में एक कमेंट दूर कहीं जलजले पैदा करता है. फेसबुक जैसे माध्यम के सहारे अन्ना के आंदोलन की लड़ाई लड़ी जा रही है. और हर अखबार अपना इ पेज नेट पर डाउनलोड करने तक की सुविधा देता है, जिससे सऊदी अरब में बैठा व्यक्ति भी पेज को देख और पढ़ सकता है, तो किसी वस्तु या कांसेप्ट को रीजन में कैसे समेट सकते हैं.
कम से कम हिंदी बेल्ट का भी हर अखबार हर राज्य में अपनी मौजूदगी का अहसास करा रहा है, तो ये रीजनलिज्म का कांसेप्ट तो यूं ही फेल हो जाता है. कल के वर्कशॉप में मंच पर मौजूद हर वक्ता कंटेट को लेकर चिंतित था. बाजार में बढ़ते पूंजी के दबाव को गलत करार दे रहा था. लेकिन अंत में फिर बहस उसी फंडिंग पर आकर टिक गयी. आखिर फंडिंग कहां से हो. अखबार या चैनल को चलाने का जो दबाव है और उसके लिए पूंजी जुटाने का जो प्रोसेस है, वो इतना टेंशन भरा हो गया है कि बड़े खिलाड़ी भी इस फील्ड में आने से पहले सोचते होंगे. इसी फंडिंग या बाजार में टिके रहने का दबाव था कि ब्रिटेन के सबसे पुराने टेबलायड न्यूज आफ द वर्ल्ड के पत्रकारों ने रिपोर्टिंग के लिए हर गलत हथकंडा अपनाया. हमारे देश में भी चुनाव के वक्त पन्नों के बेचे जाने की चर्चा हर कोई कर रहा है. यहां तक कि मंच पर भी मिश्रित मुस्कान के साथ चर्चा के दौरान प्रायः सबने स्वीकार किया. आखिर सिर्फ कोई विचार पूंजी से क्यों संचालित होता है.
चाणक्य का एक कथन है कि अगर राजा नियंत्रण से बाहर हो, तो राजा के विचारों पर नियंत्रण करो. और उसे विचार देनेवाले व्यक्ति को नियंत्रित करो. ऐसे में मीडिया को इनडायरेक्टली कंट्रोल करने की कोशिश हो रही है. ये कोशिश इसके सहारे सत्ता को बदलने की भी है. मीडिया में जो लोग हैं, उन्हीं के माध्यम से सत्ता या व्यवसाय में जोड़-तोड़ का सिलसिला भी जारी है. ऐसा नहीं होता, तो राडिया केस में कई नाम नहीं उछाले जाते. वर्कशॉप के दौरान सबसे महत्वपूर्ण बात यह हुई कि किसी अखबार ने पहली बार खुल कर चर्चा करने की सोची.
वरिष्ठ पत्रकार प्रमोद जोशी ने जो सबसे पते की बात कही, वो ये है कि हमारे यहां नए पत्रकारों की ट्रेनिंग और उन्हें समझाने और बदलते ट्रेंड को जानने-समझाने के लिए एक व्यवस्था होनी चाहिए. उन्होंने पते की बात कही कि न्यू जेनरेशन के जर्नलिस्ट और पुराने जेनरेशन के जर्नलिस्ट के बीच एक कम्युनिकेशन गैप है. अब अखबारों में सिखानेवाले नहीं बचे और जो बचे हैं, वो सिखाने की स्थिति में नहीं हैं. वैसे भी ये त्रासदी एक दिन में नहीं हुई है. खास कर हिंदी मीडिया में जहां औसत आदमी ही पत्रकार बनते या बनाए जाते हैं, क्योंकि जिस प्रकार का कम वेतन नए पत्रकारों को दिया जाता है, उसमें कैसे किसी प्रतिभाशाली व्यक्ति को आने के लिए प्रेरित कर सकते हैं. क्योंकि आज कल उससे कम या उतनी ही मेहनत कर कोई युवक दूसरे फील्ड में सम्मानजनक स्थिति पा सकता है. जो एवरेज सैलरी १० या १४ हजार प्रिंट मीडिया में शुरुआती दौर में मिलते हैं, वो तो अब दूसरे फील्ड में सबसे कमतर सैलरी से भी कम है.
सवाल वही है कि आप जब इनोवेशन की बात करते हैं, तो परिवर्तन की बात करते हैं. परिवर्तन अंदर से हो. उथल-पुथल तो मची है. नहीं तो वर्कशॉप के दौरान अन्ना आंदोलन के मुद्दे पर दो दिग्गज विषय से भटक कर अन्ना आंदोलन पर एक-दूसरे की काट नहीं करते. अन्ना को मीडिया का इतना साथ देना चाहिए या नहीं, ये भी बहस का विषय है. लेकिन एक बात और है कि इंडियन मीडिया मार्केट के हिसाब से बोलता है. अगर पाक विदेश मंत्री हिना आयीं, तो वो यहां छा गयीं. विदेश मसले से ज्यादा उनकी खूबसूरती पर चर्चे होते रहे.
अन्ना को लेकर भी इंडियन मीडिया मानिया का शिकार हो गया है. वो कंफ्यूज है. कंफ्यूज आम आदमी भी है. वो बाबा रामदेव का समर्थन करे या अन्ना का. वैसे भी एक सवाल तो है कि अन्ना के अगल-बगल जो आदमी हैं, वो क्या देश के १२० में ६० करोड़ लोगों का भी समर्थन करते हैं क्या? क्या उन्होंने अपने घर से ट्रांसपरेंट होने की शुरुआत की है. मीडिया शायद इन सवालों को जानने की कोशिश नहीं करता. क्योंकि वो तो जंतर-मंतर के चारों ओर ही रिपोर्टिंग करने में अपनी भलाई समझता है. जैसा कि एक कुआं का मेढक बस कुएं तक सिमट जाता है.
एज ए मीडिया पर्सन आज न तो मैं बाबा रामदेव के साथ हू. न अन्ना हजारे के साथ और न कपिल सिब्बल के. अब हमारे जैसे आदमी को भी, जो एक पत्रकार है, मीडिया में जारी बहस से राह निकलती नजर आती है. वक्त कम है और काम ज्यादा है. रीजनल नहीं, नेशनल जर्नलिज्म की बात करते हुए खुद को मजबूत कीजिए. क्योंकि देश और समय काफी आगे निकल गया है. जिनमें समय से आगे देखने की ताकत होती है, वही बदलाव भी लाते हैं.
(सारे मेरे निजी विचार हैं... इससे अन्य किसी व्यक्ति या संस्थान का लेना-देना नहीं है..)