कल हमारी कालोनी में कुछ बुद्धिजीवी टाइप के लोग बहस कर रहे थे. मुद्दा वही अन्ना केस था. अन्ना को गांधी कहने के मुद्दे से सवाल-जलाब शुरू हुआ और फिर वही लोकल लेवल पर गरियाने के लेवल पर आ गया. बिंदास अंदाज में कहूं तो जो बाबू जितना फेंकना था, फेंक रहे थे. उन्हें दूसरे हजारों लोगों में गलतियां ही गलतियां नजर आ रही थीं. अन्ना ने एक सिस्टम को लेकर बात शुरू की. उनके समर्थन में पूरी जमात भी उठ खड़ी हुई. लेकिन मैं कहता हूं कि हमारे यहां हम अपने यहां से क्यों नहीं शुरुआत करते. ये सिस्टम सुधारने का पहला स्तर या स्टेप तो परिवार ही है. मेरे मन में एक सवाल बार-बार आता है कि कई लोग अपनी संतान को आधुनिक समय के हिसाब से उन तमाम पुरानी विकसित विचारधाराओं से दूर ले जाते हैं, जो किसी को बेहतर व्यक्ति बनाता है. एक बार कृष्णामूर्ति का इस देश से गरीबी उठाने पर प्रवचन हो रहा था, तो उसमें उन्होंने वैचारिक गरीबी का जिक्र किया. तमाम वो लोग. जो इस अन्ना आंदोलन के भागीदार बने हैं, वे क्या अपने घर से ईमानदार बनने या बनाने की शुरुआत नहीं करेंगे. सिस्टम तो सुधर जाएगा. क्योंकि कोई भी गलत चीज ज्यादा दिन तक नहीं टिकती. लेकिन आनेवाले समय में अन्ना जैसे लोग पैदा नहीं होंगे. अन्ना के आंदोलन में फिल्म स्टार से लेकर लेखक, अधिकारी और आम लोग तक हिस्सेदार बने, ये देख मन को संतोष मिला. पहली बार ऐसा भी हुआ कि सरकार को एक आदमी की ताकत का अहसास हुआ है. वैसे मीडिया भी कम से कम अन्ना को लगातार महत्व देता रहा. कल तक शायद अन्ना का अनशन भी खत्म हो जाए.
Friday, April 8, 2011
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3 comments:
हम सुधरेंगे जग सुधरेगा... वाली बात ठीक है... लेकिन आज तो ऊपर से ही लगाम कसने का समय है... सभी को एक चेतावनी दी जाये, न सुधरने पर...अविलम्ब कार्रवाई... पूरे खून को बदलने की जरूरत है..
अन्ना ने साबित कर दिखाया कि अगर ईमानदार ज़ज्बा हो तो एक अकेला भी पूरी सरकार पर भारी पड़ सकता है..जनता अपने आप साथ आयेगी.
सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं...
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