२९ जुलाई को हजारीबाग में नारायण नामक युवक ने आत्मदाह की कोशिश की। उसकी हालत गंभीर है और अस्पताल में उसका इलाज चल रहा है। नरेगा हो या कोई और योजना, इस राज्य और देश में गरीबों के लिए योजनाएं नाम के लिए ही रह गयी हैं। जिस उद्देश्य को लेकर नरेगा जैसी योजना शुरू की गयी थी, वह तो भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गया। चुनावी राजनीति ने इस देश के गरीबों का बंटाधार कर दिया है और उन्हें देखनेवाला अब कोई नहीं रह गया है, ऐसा लगता है।
राजनीति और विकास की अंधी दौड़ में गरीब सिफॆ पिस रहा है। काफी कुछ बहस सदन और मीडिया में हो रहा है। गरीबों में वह आम आदमी भी है, जो दो जून की रोटी के लिए सुबह से शाम तक काम करता है। हर साल वेतन तो बढ़ता है, लेकिन उसके साथ ही बढ़ती महंगाई उसकी उस बढ़त को भी लील जाती है। कांग्रेस ने कुछ दिनों पहले किसानों के लोन माफ किये थे, लेकिन उसके बाद भी महाराष्ट्र और आंध्राप्रदेश के गरीब किसान आत्महत्या कर रहे थे। बहस में फिर वही गरीब ही आते हैं। ग्लोबलाइजेशन के इस दौर में मीडिया में भी सिफॆ सेंसेक्स और अमीरी की ही बात हो रही है। कहीं से उस सामाजिक सच्चाई को छूने की कोशिश नहीं हो रही है, जिसमें गरीब रोज और गरीब होता जा रहा है और अमीर और अमीर।
नक्सलवाद की समस्या हो या सेज बनाने की, सभी जगह में केंद्र बिंदु में गरीब ही हैं। कल तक जो गरीब सरकार की ओर नजरें उठाये, न्याय की आस में देखते थे, वही सरकार महंगाई पर नियंत्रण पा सकने में असफल होने की बात स्वीकार करती नजर आती है। हमारे पॉलिसीमेकर बेचारे भी इन बातों को नजरअंदाज कर सिफॆ मुंबई और न्यूयाकॆ की बात कर रहे हैं। घर को दुरुस्त करने के लिए नींव का मजबूत होना जरूरी है, इसे वे शायद भूल जा रहे हैं। विश्वासमत के दौरान हुई नौटंकी ने तो रही सही कसर पूरी कर दी। देर हुई है, पर है अंधेर नहीं। जरूरी है कि हमारे पॉलिसीमेकर सुधर जायें।
Wednesday, July 30, 2008
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