पूरी दुनिया में कुछ पाने का जुनून छाया है। भले ही आप उसे जिंदगी के ७०वें वषॆ में क्यों न पायें। दिल्ली, मुंबई हो या रांची हर जगह तरक्की की भूख है। हमारे आम जनजीवन में भी भौतिकतावाद हावी है। ग्लोबलाइजेशन के इस दौर में तो गरीबी की बात करना मानो अपराध समान है। पैसा और नाम कमाने के जुनून ने हदों को तोड़ते हुए सामाजिक और आथिॆक स्तर पर नये समीकरणों की रचना कर डाली है। गांव और शहर के बीच की खाई गहरी होती जा रही है। मीडिया क्रांति ने यंग जेनरेशन का जिस तरह से ब्रेनवाश करने का काम किया है, उसमें यह कहना लाजिमी होगा कि गांव का पिछड़ापन अब एसी रूम और ड्राइंगरूम डिस्कशन का इशु होकर रह गया है।
अगर आज सच्चाई को ठोस और वास्तविक स्वरूप में जानना है, तो आप बिहार और यूपी के गांवों में जरूर चले जायें। गांव में मिलेंगे सिफॆ बूढ़े और प्रौढ़। आज का यंग जेनरेशन गांव छोड़कर शहर की ओर रुख कर चुका है। उनके लिए गांव में कोई काम नहीं है या फिर पुरातन कृषि पद्धति उन्हें भा नहीं रही है। तरक्की और अच्छे जीवन की आशा ने उन्हें शहर की ओर धकेल दिया है। अब संतुष्टि और सादगी तो सिफॆ प्रेमचंद के उपन्यासों के गांवों में ही मिलेगी। न्यू जेनरेशन कुछ पाने के लिए कुछ भी कर गुजरने को बेचैन है। इस कारण आज दोस्त और भाई जैसे रिश्ते भी कलंकित हो रहे हैं।
आज शहरों में भीड़ बढ़ती जा रही है। दिल्ली में मकान के लिए मारामारी है,तो मुंबई में जगह नहीं है। बढ़ती मुद्रास्फीति की दर ने मकान खरीदने को एक सपना बना दिया है। पुराने लोग शहर तो आ गये, लेकिन उनकी जमीन गांव में ही है। क्या आप सोचते हैं कि उनकी भावी पीढ़ी जो शहरों में पली-बढ़ी, अब कभी गांवों की ओर रुख कर पायेगी। खेती-किसानी तो वे कब का भूल चुके होंगे। शहरी सुख-सुविधाओं और तरक्की की सपने को छोड़ने अब उनके लिए शायद मुनासिब नहीं है।
वास्तविकता तो यह है कि वतॆमान में जो हालात हैं, उनके लिए शायद हम तैयार नहीं हैं। हमारे थिंक टैंक ने गांवों में रोजगार के मौके पैदा ही नहीं किये। जिससे एक आम आदमी गांव में मेहनत कर कमा खा सके। बिहार आज भले ही नये सिरे से फिर बन रहा हो, लेकिन बिहार और यूपी के लोग अपने प्रदेश से बाहर किन विरोधाभासों के बीच जी रहे हैं और जीने को विवश हैं, वह किसी से छिपा नहीं है। इस बारे में ज्यादा बोलने या लिखने की जरूरत भी नहीं है। क्योंकि जो सच है, वह सबके सामने है।
बुनियादी समस्याओं को पूरा करना आवश्यक है। जरूरत देश के गांव को ही ठोस तरक्की के रास्ते पर ले जाने की है। जिससे गांव और शहर के बीच बढ़ती खाई को पाटा जा सके। बड़ी-बड़ी बातें करनेवाले हमारे राजनीतिक पंडित उस नब्ज को टटोलने की कोशिश करें, जिससे विकास की मुख्य धारा गांवों में बहे।
Friday, August 8, 2008
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