हमारा बचपन रांची में ही गुजरा। तबकी रांची और आज की रांची में वैसा ही अंतर है, जैसे कस्बे और शहर में। हरियाली, ताजगी और खुशनुमा मौसम रांची की पहचान थी। यहां का टैगोर हिल, पहाड़ी मंदिर, आसपास के खुले मैदान सब कुछ लोगों को खुले बांहें फैलाये स्वागत करता नजर आता था। हर ओर हरियाली थी। हमारे खेलों में भी क्रिकेट कम, गिल्ली-डंडे, कंचे ज्यादा हुआ करते थे। इन कंचों को लेकर खेलने की दीवानगी ऐसी होती थी कि हम लोग दिनभर मैदान में बेसुध बिना खाये-पीये खेलते रहते थे। जिसका निशाना जितना अच्छा होता, वह उतना ही जीतता। हम खेल में शुरू से ही कच्चे रहे, इसलिए हारना मेरा शगल था। लेकिन मजा ही कुछ ऐसा होता था, हारने का गम भूल हम फिर उसी अलमस्त अंदाज में गिल्ली-डंडा हो या कंचा, खेलना शुरू कर देते थे। आज का कोई बच्चा न तो इन खेलों के बारे में जानता है, न समझता। उनके पास वक्त नहीं है। हमारी क़ॉलोनी के बाहर लीची के बगान हुआ करते थे, जहां आज बहुमंजिली इमारते और घर बन चुके हैं। उन लीची के बगानों में कुछ आम के पेड़ भी थे। लड़कों की टोली हमेशा इन बगानों में घुसकर आम और लीची की चोरी करने की कोशिश में लगे रहती थी। भले ही उसमें उन्हें दो डंडे क्यों न खाने पड़े। हम हर हाल में इन मामलों में फिसड्डी ही रहे। क्योंकि चोरी कर भागने में जो चपलता चाहिए होती थी, वह मुझमें नहीं थी। हां, जमा किये गये फलों में हिस्सा लेने के लिए हम आगे जरूर आते थे। उस दौर में जो सबसे अच्छी बात होती थी, वह यह थी हम बच्चों के बीच कोई स्टेटस सिंबल नहीं होता था। न कोई गरीब होता था और न कोई अमीर। आज भी मेरे बचपन के दोस्तों में कई ऐसे मिल जाते हैं, जो निहायत ही गरीब परिवार से आते थे, लेकिन कभी कोई खास फकॆ हम दोस्तों ने खुद में महसूस नहीं की। काफी कुछ अलग था। आज के बच्चों में बचपन से ही स्टेटस को लेकर क्लासिफिकेशन साफ नजर आता है। क्योंकि सरकारी स्कूलों में बेहतर घरों के बच्चे कम ही पढ़ते हैं। पहले तो ज्यादातर परिवारों के बच्चे सरकारी या हिन्दी माध्यम के स्कूलों में ही पढ़ते थे। उस समय मिशनरी स्कूलों खासकर अंगरेजी या निजी स्कूलों की संख्या कम थी। ज्यादातर अभिभावक अपने बच्चों के एजुकेशन को लेकर वैसे प्रेशराइज नजर नहीं आते थे, जैसे आज के अभिभावक नजर आते थे। स्कूलों में भी हमारा अपने टीचरों से खासा लगाव रहता था। उनके नाम हमें आज भी उसी तरह याद हैं। आठवीं क्लास में आने के बाद हमारे ऊपर भी पढ़ाई का दबाव था। मैंने हाइस्कूल की पढ़ाई राजकीय उच्च विद्यालय, रांची से की है। उस समय इस स्कूल की स्थापना मॉडल स्कूल के रूप में की गयी थी। डेपुटेशन पर बेहतरीन टीचरों को लाया गया था। आठवीं से दसवीं क्लास के तीन सालों में हमने खूब पढ़ाई की थी। यहां रांची में टैगोर हिल के पास रामकृष्ण मिशन आश्रम की लाइब्रेरी हुआ करती है। हम और हमारे दोस्त वहां जाकर काफी पढ़ा करते थे। हमने शरतचंद्र चट्टोपाध्याय, प्रेमचंद से लेकर बांग्ला साहित्यकारों के ढेर सारे हिंदी में अनुवादित उपन्यास पढ़ डाले थे। हमारे घर में उस समय सारिका, पराग, साप्ताहिक हिन्दुस्तान और धमॆयुग जैसी पत्रिकाएं आती थीं। आज वैसी पत्रिकाओं का दौर जैसे खत्म ही हो गया है। इस हाइक्लास होते समाज में सबकुछ बदल डाला है। मैं भी खुद को बदला हुआ ही पाता हूं।
टेलीविजन का दौर -
१९८४ का समय याद आता है। टेलीविजन का प्रवेश ने जैसे पूरे समाज में अनोखा बदलाव ले आया था। टीवी रखना और देखना एक तरह का स्टेटस सिंबल हुआ करता था। लोग कृषि दशॆन जैसे प्रोग्राम भी घंटों बैठकर देखा करते थे। सप्ताह में दो दिन सिनेमा दिखाया जाता। एक-एक कर हम लोगों ने भी सारी पुरानी फिल्मों का मजा ले ही लिया। बुनियाद, तमस और हम लोग जैसे सीरियलों ने पुरानी यादों को ताजा करने का काम किया था। कुछ बदल रहा था, लेकिन धीरे-धीरे। रामायण और महाभारत ने इन बदलावों को और हवा दी। धामिॆक चेतना का उदय हो रहा था। कुछ खास किस्म का बदलाव था, जिसका असर इस देश पर आनेवाले सालों में साफ नजर आया था।
Sunday, August 24, 2008
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गांव की कहानी, मनोरंजन जी की जुबानी
अमर उजाला में लेख..
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