जिंदगी, सरपट भागती जिंदगी। कभी धीमे, कभी तेजी से।
रोज नये अंदाज में जिंदगी शुरू होती है, लेकिन रात होते-होते मन के बोझ से थककर सो जाती है। टिक-टिक करती घड़ी की रफ्तार भी तेज हो गयी मालूम पड़ती है।
अब दीपावली भी आ गयी। साल भी बीत जायेगा। यानी जिंदगी का एक साल खत्म हो जायेगा। ३१ दिसंबर को नाच-गाकर नयी जिंदगी की आस लिये नये साल का स्वागत किया जायेगा। पर इस जिंदगी का अंत और शुरुआत खोजने के लिए वक्त नहीं मिलेगा। हमारे जैसी यह धरती भी जागती और सोती होगी। लेकिन अपनी सतह पर भागती-दौड़ती दुनिया को शायद यह धरती भी महसूस नहीं करती होगी। क्योंकि ऊपर सतह पर जिंदगी मशीन बन चुकी है। किसी के पास किसी के लिए समय नहीं है। किसी की आत्मा दुखती है, तो दुखे, कोई देखनेवाला नहीं है। शायद सच भी यही है। जिंदगी को बनानेवाला मालिक भी बेचैन ही होगा। क्योंकि इस निराली दुनिया में अब वो बात नहीं रही, जो पहले थी। इसकी पहेली को गीतकार भी नहीं समझ पाये। शायद इसलिए गाया
जिंदगी कैसी है पहेली हाय रे...... कभी ये सताये, कभी ये रुलाये....
वैसे कभी-कभी जिंदगी को बदलने की जिद काम कर जाती है। जरूरत इस जिद को अपने ऊपर हावी करने की है। वैसे इसके लिए इच्छाशक्ति को मजबूत करना पड़ेगा। लेकिन अगर एकरसता को तोड़ना है, तो वैसा करना ही होगा। बिंदास तरीके से जीना होगा। क्योंकि हमें खुद के लिए जीना है। यह जरूरी भी है। हम खुश रहेंगे, तो दुनिया भी खुशनुमा ही नजर आयेगी। और जब आप खुश रहेंगे, तो सरपट भागती जिंदगी की डोर भी आपके हाथों में रहेगी। इसलिए जिंदगी की पहेली को समझने की कोशिश को छोड़िये। खूब हंसिये, खूब मजाक करिये, सरपट भागती जिंदगी में जो थोड़े पल मिलेंगे, शायद उसमें ही कुछ अलग सा ऐसा हो जाये कि हम-आप गुनगुनायेंगे, रोकर नहीं, हंसकर
सोचना क्या, जो भी होगा देखा जायेगा.......................
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2 comments:
बहुत सकारात्मक बात कही है आपने...एक दम सच.
नीरज
बहुत ही सकारात्मक सोंच.....सोचना क्या, जो भी होगा देखा जायेगा.......................
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