साध्वी प्रग्या प्रकरण में प्रखर हिन्दुवाद का उदय दिख रहा है। हिन्दुवाद के प्रबल समथॆक नजर आते हैं। एक गंभीर और चुनौतीपूणॆ विषयवस्तु है हिन्दुवाद। सतही विश्लेषण से जहां इस वाद की कट्टरपंथी धार तेज हो रही है, वहीं बहस भी मूल बिंदु से भटक सा गया है। वतॆमान हिन्दुवाद मेरी नजर में हिन्दू समाज को उस कट्टरता की ओर अग्रसर करने की कोशिश है, जहां से लौटना असंभव होगा। क्योंकि कट्टरता शब्द का इस्तेमाल मुख्यतः हम दूसरे विशेष धमॆ के संदभॆ में करते रहे हैं। हिन्दुओं को शुरू से ही सहनशील दिखाया गया है। शांति, अहिंसा और धीरज की प्रतिमूरति रहे हैं हिन्दू। काफी लोग मेरे लिखने से चोटिल महसूस कर रहे होंगे। आखिर क्यों, इस बहस के बीच में ऐसा गांधीवादी नजरिया अख्तियार किया जा रहा है। लेकिन जरा सोचिये, जिस दिन ये हिन्दू बहुल देश कट्टर धमॆपंथियों के हाथों में चला जायेगा, उस दिन क्या होगा?
एक सवाल पूछता हूं, भाजपा की सरकार बनी। पांच साल मिले, लेकिन उसके बाद भी भाजपा जिन मुद्दों को लेकर सामने आयी थी, उन्हें सुलझा न सकी, क्यों? मौके पूरे थे। भाजपा पर शायद लोगों को विश्वास था। लेकिन उमा भारती प्रकरण के बाद उसमें साफ दरारें नजर आयीं। इस बार भाजपा के पास अटल सरीखे नेता भी प्रत्यक्ष तौर पर नहीं हैं। हमारा कहना है कि सत्ता में आते ही सारे दल एक चरित्र के हो जाते हैं। क्योंकि सियासत को धमॆ या सिफॆ अपने वाद या सिद्धांत के नाम पर नहीं चलाया जा सकता है। सवाल कट्टरता सरीखे मुद्दे पर विचार करने का है।
बगल का हमारा देश है पाकिस्तान। आज खुद कट्टरतावाद और आतंकी गतिविधियों से त्रस्त है। जहां-जहां धारमिक उन्माद सोच पर हावी हुआ है, उसने देशों की तकदीर को गलत दिशा दी है। इसलिए कम से कम हमें अपने माइंडसेट को कट्टरतावाद की भेंट चढ़ाने से पहले काफी सोचने की जरूरत है। मैं ये नहीं कहूंगा कि कोई दल या संगठन खराब है। लेकिन धमॆ के नाम पर हिंसा को उचित कभी नहीं कहा जा सकता है। धमॆ और हिंसा को अलग रखकर ही समस्याओं का समाधान किया जा सकता है। धमॆ को राजनीति से अलग करने की कोशिश होनी चाहिए।
धमॆ हमारे व्यक्तिगत जीवन का हिस्सा होना चाहिए। सामूहिकता का जामा पहना कर धमॆ को जब आडंबरयुक्त बनाया जाता है, तो ये खतरनाक हो जाता है। इस देश में ऐसी जागरूकता आये कि धमॆ की राजनीति बंद हो जाये और हर कोई अपने साथ-साथ दूसरे धमॆ का सम्मान करे।
Saturday, November 22, 2008
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5 comments:
धार्मिक कट्टरता ग़लत ही है चाहे किसी भी धर्म में हो
बहुत अच्छा् आलेख।धर्म को व्यक्तिगत आस्था की सीमा से आगे बढ़ने की अनुमति नहीं होनी चाहिये।
aapka najariya pasand aaya,aur khaskar aakhir mein yah kahna ki dharm ko raajneetise alag nahin kiya ja sakta.
ALOK SINGH "SAHIL"
हजारों बार ये बात दुहराई जाती रही है के धर्म या मज़हब इंसान का जाती मामला है. इसे मुल्क की सियासत से दूर रखना चाहिए. लेकिन इसे मानता कौन है. मुसलमान कट्टर इसलिए हैं के वो हज़रत मुहम्मद [स.] के उसूलों पर चलने के बजाय हज़रत उमर [र.] के उसूलों पर चलते हैं.जिनकी पूरी इमारत सियासत की बुनियाद पर खड़ी है. कम से कम नववे फीसदी मुसलमानों का यही हाल है. हिन्दुओं ने वेदों और उपनिषदों का रास्ता तर्क कर दिया है और पुराणों की राह पर चल रहे हैं. जहाँ सब कुछ जायज़ है. लोग किस हिन्दू और किस इस्लाम की बात करते हैं यह बताना मुश्किल है. सियासत ने धर्म की धज्जियाँ उडा दी हैं. धर्म के साथ सियासत के शामिल होने पर न धर्म बचता है और न मुल्क. आज दुनिया से मुझे तो लगता है के धर्म गायब हो चुका है और धर्म के नाम पर जो कुछ है वह उसकी सियाह परछाईं भर है जो सियासत की चादर में लिपटी हुई है.
वेद आधारित हिन्दु है, शश्वत मंगल धर्म.
कर्म-कांड और प्रतिक्रिया,नहीं है उत्तम कर्म.
नहीं है उत्तम कर्म, मगर जीना आवश्यक.
जीना है तो दुष्ट-दलन भी अत्यावशक.
कह साधक कविराय,धर्म है सत्याधारित.
शाश्वत मंगल-धर्म,हिन्दु है वेद आधारित.
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