Monday, January 5, 2009

घनश्याम जी और उनकी एक मुट्ठी धूप

शरद ऋतु के साथ मीठी धूप के रूप में प्रकृति एक नायाब नेमत हम पर लुटाती है। धूप एक भौतिक पिंड है, जो न हो तो यह धरती ही न बचे। व्यक्तिगत संदर्भों में सर्दी की धूप की उपमाएं भरी पड़ी हैं। सर्दी में धूप अमृत है, राजसम्मान की तरह। उनके लिए धूप खास है, जो अपने केन्याई ग्रास वाले लान में चेयर पर पांव पसारे सुबह हल्की धुंध के साथ खुद को प्रकृति में स्थित कर लेते हैं। बाद में धीरे-धीरे सूर्य की रश्मियां अपना ताप बढ़ाती जाती हैं और पोर-पोर की कसमसाहट, आलसपन धुआं-धुआं बनकर उड़ता चला जाता है। टेबल पर लीफ वाली चाय से जो खुशबू उठती है, उसके पार भविष्य के कई सुंदर बिंब दिखते हैं।



घनश्याम श्रीवास्तव झारखंड की पत्रकारिता का जाना-पहचाना नाम है। उनके बारे में जितना ज्यादा कहा जाये, कम है। उनके ब्लाग पर गया, तो धूप पर मन को छूते लेख ने ऐसी गुदगुदी की, यहां आपके लिए पेश कर दिया।



जीवन चलता जाता है, अलमस्ती में। पर इसका एहसास उन्हें नहीं हो सकता, जो रश्मियां बिखरने के पहले ही व्याध मजूरी की परिक्रमा के उपक्रम में लग जाते हैं। कुछ लोगों के लिए क्या धूप, क्या छांव। क्या सर्दी, क्या बरसात। यह वो मौसम है, जिसके मिजाज पढ़ने-गुनने के लिए जिंदगी से बेजार हुए न रहना पहली शर्त है।सर्दी की धूप का आनंद ठीक वैसा ही है, जैसे गर्मियों में छत पर मखमली बिस्तर पर लेटे हुए, हल्की सर्द हवाओं के आगोश में कोई आकाश में टंके तारे देखने की फुर्सत पा जाता है। पूरे शरीर को नहलानेवाली धूप में सेहत होती है, उष्मा होती है, खिलंदड़पना होता है, बीती रात विदा हुई चांदनी से मिलने की तड़प होती है। आप गांव में हों या शहर में, सड़क या पगडंडियों के दोनों ओर पेड़ों की झुरमुट से होकर सर्दियों की धूप निखरती है, वहां जमीन पर उगी घास पर गिरे ओस कभी देखे हैं? कभी अल्लसुबह उठकर ऐसे दृश्य निहारिये, तो लगेगा, काश- मेरे पहलू में भी होती एक मुट्ठी धूप।

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