Thursday, January 15, 2009

नकल की चादर उठा फेंकिये, तभी दुनिया पूजेगी(भारतीय फिल्म की अनकही दास्तां)

जब कोई विदेशी देश की गरीबी पर फिल्म बनाता है। एक बस्ती की जिंदगी को दुनिया के सामने पेश करता है। चरचाएं होती हैं, विषयवस्तु पर बहस होती है। जिस गांधी ने आजादी दिलायी, उस पर यहां के फिल्मकार कभी फिल्म नहीं बना सके, लेकिन वही एक विदेशी आकर, रहकर, अध्ययन कर गांधीवाद को अपनाकर फिल्म बनाता है। हम भारतवासी अभिभूत होकर रह जाते हैं।
क्या कहें, क्या करें, एक अजीब सी पहेली दिमाग में घूमती नजर आती है। एक सवाल सबके जेहन में है कि भारत के इस विकसित, चकाचौंध और ऊजाॆ से भरी दुनिया को विश्व में हॉलीवुड की तरह महत्ता क्यों नहीं मिलती? भारत का सिनेमा अभी भी वैश्विक पहचान के लिए पश्चिम जगत के हस्ताक्षर पर निभॆर है। तारे जमीं पर जैसी फिल्म आस्कर की रेस से बाहर हो जाती है।
अब जरा भारतीय फिल्म जगत की हस्तियों की जीवनशैली के बारे में बात कर लें। नाम कमाते हैं हिन्दी भाषा की फिल्मों से और बात करते हैं अंगरेजी में। भारतीय जीवनशैली से दूर नकल हॉलीवुड की करते हैं। अपनी पहचान के लिए तरसता भारतीय सिनेमा जगत वुड नाम जोड़ कर खुद को बालीवुड कहलाना पसंद करता है। यानी नकल ही नकल से भरी है पूरी फिल्मी दुनिया। नाम में नकल, जीवनशैली में नकल, काम में नकल, फिल्म बनाने में नकल, तो फिर अपनी ओरिजिनेलिटी कहां है? अब ६० सालों के बाद विदेशी फिल्मकार यहां की गरीबी पर फिल्में बनाकर वाहवाही बटोरते हैं। गरीबी, तंगहाली और बस्तियों का जंगल यहां की शायद असलियत है, जो कि एक बड़ी आबादी को प्रभावित करता है। दूसरी ओर विकासशील देश के वे भी नागरिक हैं, जो अच्छी शिक्षा पाकर एक बेहतर जीवन जी रहे हैं। उन्हें भारतीयता के नाम पर पेश की गयी गरीबी कचोटती है, खराब लगता है और वे तिलमिला कर रह जाते हैं।
दूसरी ओर सच्चाई को मानने से दूर रहना खुद के अस्तित्व को नकारने जैसा है। भारतीय सिनेमा जगत आज भी लव ट्राइ एंगल से ऊपर नहीं उठ पाया है। उस मायावी दुनिया से ऊपर नहीं उठ पाया है, जो कि इसकी आदत बन चुकी है। इससे अलग सोचना एक गुनाह जैसा लगता है। क्योंकि भारतीय दशॆकों ने इसे एक रूटीन मान लिया है। मान लिया है कि ये हमारे जीवन का हिस्सा है। इसलिए जब पैसे का नहीं सोच कर भारतीय फिल्मकार देश की आत्मा के बारे में सोचेंगे और दुनिया के लोगों को सोचने के लिए मजबूर करेंगे, तब ही उनकी प्रतिष्ठा बहाल हो पायेगी। साथ ही उनकी काबिलियत का डंका पूरी दुनिया में बजेगा।
अब आमिर, जो कि समकालीन दौर में बेहतर भारतीय फिल्मकार माने जा रहे हैं, उनकी तारे जमीं पर जैसी फिल्म आस्कर के रेस से बाहर हो जाती है। यह भी एक सोचनेवाली बात है।

1 comment:

अभिषेक मिश्र said...

Pather Panchali' ho ya 'Do Bigha Jamen'; apni miti se judi kahanaiyan hi vastavik apel create kar pati hain, jo shayad aaj ke filmkaron ko fir se yaad dilane ki jarurat hai.

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