Thursday, February 5, 2009
सरकारी बनाम निजी स्कूल
आज-कल एक मुद्दा काफी विवादित है-निजी स्कूलों में फीस के बढ़ने का। ज्यादातर अभिभावक परेशान हैं। इन सारी बातों से अलग एक मुद्दा जो चीजें गौर करनेवाली हैं, वह सरकारी स्कूलों को अभिभावकों द्वारा पूरी तरह नजरअंदाज किया जाना। एक खास किस्म की नकारात्मक मानसिकता शायद समय के साथ सरकारी शब्द के साथ और दृढ़ होती चली गयी है। सरकारी संस्था, स्कूल को लोग अक्षम या गिरे स्तर का मानते हैं और निजी का तमगा लिये संस्था और स्कूल को सक्षम और उच्च स्तर का। हम चार भाई-बहन हैं। चार में से तीन ने सरकारी स्कूलों से ही शिक्षा पायी और भगवान के आशीॆवाद से ज्यादा जिंदगी में पीछे भी नहीं रहे। आज अभिभावक स्कूलों में फीस बढ़ोतरी को लेकर चिंतित हैं। चिंता लाजिमी है। लेकिन पहले जो सरकारी स्कूल थे, उनमें जो पढ़ाई होती थी या आज जो सरकारी स्कूल हैं, उनमें जो पढ़ाई होती है, उसमें कुछ अंतर है क्या? ये सवाल काफी कारण ढूंढ़ता है। सरकारी स्कूलों के प्रति उपेक्षात्मक रवैये ने सरकार और जनता का ध्यान इन स्कूलों के प्रति कम किया है। जिससे दिन प्रतिदिन इनकी हालत खराब होती चली गयी। अगर मीडिया के रास्ते कोई शिकायत अधिकारियों को मिलती भी है, तो उस पर शायद उतना ध्यान नहीं दिया जाता, क्योंकि ये स्कूल शायद अब उस वगॆ के बच्चों के लिए रह गये हैं, जो कि काफी गरीब है। भारत वैसे भी उदारवादी नीतियों को अपना कर गरीबों को हाशिये पर धकेलनेवाला देश बन गया है। मेरा कहना है कि सरकारी स्कूलों की जो एक व्यवस्था अब तक कायम है, उसके प्रति अभिभावक क्यों नहीं जागृत होते? साथ ही इन स्कूलों के स्तर को बढ़ाने का अभियान क्यों नहीं छेड़ा जाता। ऐसा क्यों नहीं किया जा सकता है कि जो सरकारी स्कूल हैं, वे ही एक मानक के तौर पर स्थापित हों। और निजी स्कूल शिक्षा के बहाने जो मोनोपॉली कायम करने की चेष्टा कर रहे हैं या कर चुके हैं, वह खत्म हो। बात सोचने और ठोस पहल करने की है।
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3 comments:
सरकारी स्कूलों के प्रति आपकी चिंता जायज है ! बहुत सार्थक मुद्दा उठाया है आपने ....//
बहुत सही बात की है आपने.... पर सरकार को इससे कोई मतलब हो तभी तो...आज के माहौल में बस यही हो सकता है कि ...समर्थों के बाल बच्चे अच्छे स्कूलों में पढें और असमर्थ के मेधावी बच्चे भी ऐरे गैरे स्कूलों में पढकर अपनी प्रतिभा को समाप्त कर दें।
बड़ा अजीब लगता है जब सरकारी स्कूल के मास्टर/मास्टरानियों को अपने बच्चे अन्य स्कूलों में पढ़ाते देखता हूं। वे स्वयं अपनी शिक्षण की गुणवत्ता को ठीक नहीं मानते! :(
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