रोज आफिस से जाते रास्ते पर
एक व्यक्ति मिलता है पड़ा
शरीर पर आधे कपड़े
बिखरे बाल और ऊपर ताकती आंखों के साथ
सुना है बगल में अस्पताल है
कभी वह भी इसी अस्पताल में आया होगा
इलाज के लिए
लेकिन आज अपनों से दूर
गुमनाम बने हुए
बस मौत के इंतजार में
समय के थपेड़ों के साथ
जी रहा है एक जिंदगी
जो हिलाती है मर गयी संवेदनाओं को
उस रास्ते पर हर आदमी सामने देखता
ट्रैफिक के जंजाल में
हर रोज निकल जाता है
बिना कुछ पूछे
ऐसे न जाने कितने बेचारे होंगे
पड़े होंगे
हर अस्पताल के सामने
जो इलाज के लिए खुले हैं
लेकिन इंतजार में हैं
कि खुद उनका इलाज हो
क्योंकि वहां पूछ सिफॆ पैसे, पैरवी की है
किसी मिस्टर या देवी की है
उस बेचारे को तो अस्पताल भूल गया है
खुद के झमेलों में फंसा
समस्याओं के जाल में झूल गया है
देखना है कब अंदर की आभा जागती है
उन बेचारों को तलाशती है
बस इसी इंतजार में ....
रोज उस रास्ते से आफिस जाता हूं
जहां मिलता है वह बेचारा
Sunday, February 8, 2009
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2 comments:
इलाज उत्तरोत्तर मंहगा होता जायेगा और सामान्य मनई की बेचारगी और भी दिखने लगेगी।
भोजन आसानी से शायद मिल सके पर स्टेट सपोर्ट के अभाव में इलाज व्यवस्था निकम्मेत्तर होती जायेगी।
बहुत सामयिक रचना है। आज सच मे इलाज करवाना बहुत महँगा हो गया है।
बहुत सुन्दर रचना लिखी है।बधाई।
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