Sunday, March 29, 2009

क्या इस देश को नया आइडिया चाहिए, एक दिलचस्प बहस.

एक बहस फेसबुक पर चल निकली है। एक सवाल पूछा जाता है कि क्या इस देश को नयी आइडिया की जरूरत है। नयी आइडिया नये विचार। लोग पुरानी हो गयी राजनीतिक विचारधारा से ऊब चले हैं। क्रांति की बातें की जाती हैं। देश की जिंदगानी के पुराने दौर से हर दशक में नये आइडिया की बातें की जाती हैं। लोग कॉमन मैन की बातें करते हुए एक क्रांति की बातें करते हैं। कोई कहता है कि इन नेताओं ने देश का कबाड़ा कर दिया है। इन्हें हटाओ। कोई सीधे चुनाव की प्रासंगिकता की बातें करता है। चुनाव हो ही क्यों? ऐसे विचारों को देखकर मन सिहर उठता है। बातें युवाओं और महिलाओं की सुरक्षा को लेकर भी होती है।
इतनी सारी बातों में एक बात साफ झलकती है कि सब तथाकथित पढ़े-लिखे लोगों के हाथों में सिस्टम को सौंपने की बातें करते हैं। मैं इन सारी चीजों को सापेक्ष में रखकर ये सोचता हूं कि आखिर पढ़े-लिखे लोग राजनीति में भागीदारी बढ़ाने को लेकर आगे क्यों नहीं आते? अपने सुविधाओं से युक्त जीवन में कोई खतरा नहीं उठाना चाहते हैं। आज केरल में शशि थरूर जैसे व्यक्ति के चुनाव लड़ने की घोषणा ने एक बहस छेड़ी है, तो ये बहस उन सारे पढ़े-लिखे लोगों की बीच भी शुरू हो गयी है, जो अब तक इस बहस या विचार से भागते थे।
वे समझने लगे हैं कि अब भागने से काम नहीं बननेवाला। एक बेचैनी है लोगों के मन में। लोग एक बात और कहना चाहते हैं कि सिस्टम को बदलने से पहले हमें आपने देश और संस्कृति की इज्जत की बातें करनी चाहिए। वे कहते हैं कि कोई जब हमारे देश की गरीबी या इसमें छुपी अपसंस्कृति के ऊपर फिल्में बनाता है, तो हम खुश होते हैं। फिल्में को वाहवाही मिलती है, तो हम गौरवान्वित महसूस करते हैं। मुद्दा सीधे तौर पर गौरव से जुड़ा हुआ बताया जाता है। हर कुछ साफ है। सिस्टम क्या एक दिन में बदल जायेगा? क्या क्रांति की बातें कर या पूरे सिस्टम को चेंज करनेवाली बातें करने से कर्तव्य की इतिश्री हो जाती है।
इस बारे में पूरे देश में गंभीर बहस होनी चाहिए। लेकिन ब्लाग, फिल्म हो या हमारा अखबार तरक्की के मापदंडों पर कन्फ्यूजन की स्थिति में है। कहीं भी ये कान्सेप्ट साफ नजर नहीं होता है कि इस देश को गांधी या नेहरू से परे कौन सी नयी आइडिया आगे ले जायेगी। ग्लोबलाइजेशन का कान्सेप्ट ढह रहा है। उस दौर में इस देश को नयी आइडिया की जरूरत है कि नहीं, ये बहस शांत समुद्र में पत्थर फेंक कर तूफान पैदा करने के लिए बहुत है।

2 comments:

Gyan Dutt Pandey said...

तकनीकी विकास और उसके माध्यम से दुनियां का जुड़ाव तो रोक पाना सम्भव न होगा। पर असंयम की वृत्ति जिसने सब-प्राइम क्राइसिस और मन्दी को जन्म दिया; वह जरूर समाप्त होनी चाहिये/होगी।

प्रचार-प्रसार माध्यमों को भी असंयम बांटना बन्द करना चाहिये।

Anonymous said...

आज कल राजनीति का इतना क्षय हो चूका है की राजनीतिक पार्टियों के टिकट देने की पहली शर्त होती है ....दाम,दम ,वोट बैंक आकर्षणक्षमता .
कैसे आयें पढ़े-लिखे लोग ,काश राजनैतिक दलों की प्राथमिकता प्रत्याशिओं की योग्यता होती .

एक दिन में शायद ही कुछ हो पर ख़ुशी है कि बुलबुले उठने लगे हैं ,एक दिन वो आंदोलनों और परिवर्तन का जलावर्त अवश्य उठेगा जो राजनीति के समुद्र का मंथन कर सारी अशुद्धियों को अलग कर किनारे कर देगा.

Prabhat Gopal Jha's Facebook profile

LinkWithin

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...

अमर उजाला में लेख..

अमर उजाला में लेख..

हमारे ब्लाग का जिक्र रविश जी की ब्लाग वार्ता में

क्या बात है हुजूर!

Blog Archive