Thursday, May 7, 2009

छद्म आत्मविश्वास के सहारे कब तक जियेंगे पत्रकार?

क्या कोई पत्रकार जब किसी बात का फोरकास्ट करता है, तो उसके अंदर की क्या बात झलकती है? आत्मविश्वास, जानकारी या अहंकार। अहंकार होने के मायने क्या हैं? क्या इस बारे में पूरा नजरिया साफ है? अहंकार होने के मायने हैं किसी भी नजरिये पर गलत होते हुए एसर्टिव होना। अपनी बात को सही कहने के लिए अमादा रहना।

दूरदर्शन के दौर से फोरकास्ट की बातों ने जो आदत बिगाड़ी, वह कुछ सालों पहले तक चलती रही। समय के साथ वोटर, जनता जनार्दन चालू हो गया, वह अपनी मन की बात सिर्फ बटन दबाने के समय उजागर करता है। सर्वे में जो आम लोग पहले खुलकर बातें करते थे, वे अब छिपा लेते हैं। इस कारण न तो पार्टी वाले कुछ रणनीति बना पाते हैं और न पत्रकार सही विश्लेषण दे पाते हैं। ऐसे में कुछ सालों में सारे फोरकास्ट ताबड़तोड़ फेल होते चले गये। इनका न कोई ठिकाना रहा और न भरोसा।


पहल मीडिया के सीमित संसाधन थे। आज कई हैं। उनमें गला-काट प्रतियोगिता भी है। वैसे में इस जोरदार बाजार में खुद को स्थापित करने के लिए पत्रकार उस झूठे आत्मविश्वास और थोड़ी सी जानकारी का सहारा लेते हैं, जो उन्हें बाजार में झूठ के सहारे स्थापित करने में मदद देती है। उनके साथ उनका आत्मविश्वास जो बोलता दिखता है, वह स्यूडो काफ्निडेंस लगता है। एक ऐसा छद्म आत्मविश्वास, जो लोगों को उनके द्वारा दी जा रही जानकारी पर भरोसा करना सिखाता है। शायद ये इसी कड़ी में इस बार शायद इलेक्ट्रानिक मीडिया ने उन सारे विश्लेषणों से खुद को दूर रखा, जिसकी उससे आशा थी। नेताओं के दौरों, बयान और मुकाबल व द्वंद्व जैसी बातों के सहारे पूरी रिपोर्टिंग खींची गयी। वैसे जिस प्रकार की सूचना की पारदर्शिता पूरे देश में कायम हुई, उसमें मद्रास में बैठा हुआ आदमी भी झारखंड का हाल जानता है। वह जानता है कि कहां क्या हो रहा है? इसलिए अब केवल मीडिया के सहारे जनता सूचना के लिए निर्भर नहीं रह गयी है।

ऐसे में पत्रकारों को ही खुद को तौलना होगा कि वे अपने और इस सूचना के बहते बाजार में अपने अस्तित्व की लड़ाई को कैसे कायम रख सकते हैं।

2 comments:

Gyan Dutt Pandey said...

सिटीजन जर्नलिज्म उत्तर है। पर हिन्दी में पर्याप्त नेट प्रसार की कमी के चलते यह हो नहीं रहा है। इस दिशा में पिछले दो वर्षों में तो खास प्रगति नहीं पाता मैं।

Anil Pusadkar said...

पत्रकार अब खुद फ़ोरकास्ट नही कर पाता।सब कुछ संस्थान की पोलिसी पर डिपेंड करता है।वैसे सवाल बहुत ही सही है कि पत्रकार छ्द्म आत्मविश्वास के सहारे कब तक़ जी सकते है?बहुत सही।

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