Tuesday, May 12, 2009
ये मीडिया की विफलता की इंत्तहा है।
पूरे देश में ५५ से ६० फीसदी वोट पड़े। ४० फीसदी लोगों ने मत नहीं डाले। क्या फर्क पड़ा? घरों में रहे, आराम किया, चद्दर फैलाकर दस घंटे सोये होंगे। मीडिया में तो जोरदार अपील की गयी थी। कोई फर्क नहीं पड़ा। फर्क पड़ेगा भी क्यों? क्योंकि जो भी सरकार आती है हाल वही रहता है। वैसे सोने का मजा भी कुछ और है। मीडिया अपनी पहुंच के दावे करता है। लेकिन इस बार सारा कुछ फेल रहा। वह वोटर को ये सुनिश्चित नहीं कर पाया कि उसका बटन दबाना जरूरी है। ये मीडिया की विफलता की इंत्तहा है। मीडिया से रूबरू होते हुए ये बहस दरकिनार कर दिया जा रहा है कि मीडिया की पैठ को लेकर जैसी बहस करायी जाती रही है, क्या वह जायज है? क्योंकि जिस हिसाब से मीडिया ने वोट करने का अभियान चलाया, उसका दो प्रतिशत असर भी एक बड़ी आबादी पर नहीं पड़ा। मीडिया अपने अभियान में फेल रहा। वैसे नेताओं की नेगेटिव एक्टिविटिज को भी इस उदासीनता के लिए कम दोषी नहीं माना जा सकता। कोई कैसे एक बेहतर उम्मीदवार चुने, जब पूरी जमात पर ही काला रंग चढ़ा हुआ हो। इस बार वोटर ने सबको दरकिनार कर अपनी मुहर सिस्टम से नाखुश होने पर लगायी है। जागो वोटर जागो वोटरों को जगाने में विफल रहा।
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
3 comments:
इसे मीडिया की विफलता कहना ठीक नहीं है। लेकिन यह बात सच है कि मीडिया का जो असर होना चाहिए था वह नहीं हुआ। लेकिन शहरी क्षेत्रों में मतदान प्रतिशत बढ़ने में मीडिया की थोड़ी बहुत भूमिका तो है ही।
मीडिया राजनीति का केवल एक पक्ष ही दिखाती है। राजनीति से ही देश की नीतियां बनती हैं और हम सभी उससे प्रभावित होते हैं, यह पक्ष तो दिखाया ही नहीं जाता। जब प्रधानमंत्री तक मुद्दो पर बहस करने को तैयार नहीं और मीडिया को भी केवल नेताओं के बयानबाजी से ही फुर्सत नहीं तो आम जनता तो सोने को मजबूर ही होगी न? लोकतंत्र पर खतरा मंडरा रहा है लेकिन हम बेखबर सो रहे हैं।
यह मीडिया की नहीं हमारे द्वारा अपनाई जा रही जनतांत्रिक पद्यति की विफलता है।
Post a Comment