मुगली सीरियल के गीत को याद कीजिए, जंगल-जंगल बात चली है पता चला है, चड्ढी पहन के फूल खिला है, फूल खिला है। आपके बाल मन को छूते इस गीत का वाक्य आपके मन को भी तरोताजा कर जाता है। सवाल ये है कि ब्लाग को लिखनेवाला क्या जरूरी है कि आपकी भाषा का ही हो?
अगर १६ साल का लड़का भी यदि कुछ लिखना चाहे, तो क्या आप उससे खुद के समकक्ष काबिल होने की अभिलाषा रखेंगे। जहां तक ब्लागिंग जगत में शेर की तरह दहाड़ने और बकरी की तरह मिमियाने की बात है, तो हम यहां जंगल राज कायम नहीं करने आये हैं। न ही शेर की तरह खुद का शासन स्थापित करने आये हैं।
डॉक्टर अरविंद जी भी जरूर शिक्षा जगत से नाता रखते होंगे। एक शिक्षित व्यक्ति से क्या आशा की जानी चाहिए
१. दूसरों की मर्यादा का ख्याल रखे
२. दूसरों को हिरण या बकरी और खुद को शेर न समझे
३. विचारों के प्रवाह को रोकने की कोशिश न करे।
४.मूल बहस के केंद्र बिंदु को बढ़ाने का प्रयास करे, न कि बड़ी-छोटी मात्रा, गलत-सही और वर्तनी की गलतियों का मीन मेख निकालें
जब आप किसी को उसकी गलतियां बताने लगते हैं, वह भी सार्वजनिक रूप से, तो सबसे पहला प्रहार उसके आत्मसम्मान पर होता है।
शेर-बकरी की बात करनेवाले शायद ब्लाग जगत में भी हावी होने की बात को तरजीह देते हैं।
हम जब से ब्लागिंग के क्षेत्र में आये, तो हमारा मकसद कभी भी किसी के आत्मसम्मान को ठेस पहुंचाना नहीं रहा।
हम अखबार में जरूर हैं, लेकिन ब्लागिंग के लेखन को उससे अलग मानते हैं। हमारा मानना है कि ब्लागिंग ने जनसाधारण, यहां तक कि एक रिक्शेवाले को भी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता दी है। मान लें कि कल को मोबाइल की तरह ये भी क्रांति का स्वरूप अख्तियार करे और रिक्शेवाले से लेकर ऊपर के तबके तक विचारों को अभिव्यक्त करने के लिए ब्लागिंग का सहारा ले, तब क्या आपका ये जो सही भाषा, स्पष्ट लेखन और विद्वता का उपदेश है, वहां कारगर बैठेगा।
सबसे विरोधाभास की स्थिति ये है कि ब्लागिंग करनेवाले लोग खुद को पूरी आबादी के उन दो प्रतिशत विचारवान लोगों में शामिल होने का भ्रम पाल लेते है, जो कि इस देश के थिंक टैंक होने का दावा करते हैं।
अब पूरी स्थिति पर नजर डालिये। आलतू-फालतू के पोस्टों पर पसंद का चटका लगाकर उसे टॉप पर पहुंचा देने के खेल को क्या लोग नहीं समझ रहे? यहां ये इंगित नहीं होता है कि कहीं कुछ गड़बड़ है? हमने तो काफी सारे ऐसे पोस्ट देखे हैं कि जिन्हें अखबार में छापने और स्तरीय पुस्तक के लेख में प्रकाशित करने की बात होनी चाहिए, पर उन्हें पसंद के चटके के लिए महीनों इंतजार करना पड़ता है।
वहीं कुछ ऐसा-वैसा लिख डालिये, तो देखिये एक घंटे के भीतर २० पसंद के चटके उस लेख पर डाल दिये जायेंगे। हम यहां हिन्दी ब्लाग जगत की बेहतरी की ही बात कर रहे हैं। ये एक समुद्र है, इसमें तो छोटी और बड़ी नदियां सब समाहित होंगी। अब इसे समग्र रूप से देखने की बात करें, ये देखे कि मुद्दों पर कितनी बहस होती है। हिन्दी ब्लाग जगत को स्तरीय बनाने के लिए बहस और वह भी स्वस्थ बहस की ओर मोड़ने की कोशिश करें। ऐसे नहीं कि कट्टरपंथ की बातें करनेवाले ब्लागों पर पसंद का चटका लगाकर और टिप्पणियों की बरसात करके इसके समीक्षकों को ये कहने के लिए मजबूर करें कि यहां कीड़े ही कीड़े हैं।
आपसे एक और निवेदन है कि आप कृपा करके भाषा के ग्याता (तकनीकी त्रुटि) होने का भ्रम न पा लें। और न ही शेर की दहाड़ने की अपील करें। ऐसा नहीं है कि हममें आत्मविश्वास नहीं है और हम आपकी बातों का काट नहीं कर सकते। हमने कभी भी प्रत्यक्ष तौर पर विवादों में पड़ने की कोशिश नहीं की है। सिर्फ बहस को आगे बढ़ाने की कोशिश की है। हमसे शेर की तरह दहाड़ने की उम्मीद करेंगे, तो हम वह भी कर सकते हैं। लेकिन मैं अपना स्तर खोना नहीं चाहता।
दूसरी बात हमने अपनी प्रोफाइल में सीखने की ललक है, लिखा है, तो ऐसा भाषा का ग्यान (तकनीकी त्रुटि) के लिहाज से नहीं, बल्कि खुद के स्तर को और बढ़ाने के लिहाज से लिखा है।मैं चाहता हूं कि मुझे तकनीकी, जीव और साइंस तीनों क्षेत्रों से ग्यान (तकनीकी त्रुटि) के मोती मिलें। हम एक सॉफ्टवेयर इंजीनियर से तकनीकी रूप से सक्षम होने की उम्मीद करते हैं, न कि भाषा के रूप में। जिससे देश आर्थिक प्रगति करे। साथ ही अगर वह ब्लागिंग भी करे, तो भाषा पर तो कतई ध्यान नहीं दूंगा। ऐसे ही कितने तकनीकी ब्लाग पर जायें, तो वहां भाषा की गलतियां ( पिछले लेख की एक टिप्पणी में गलती को गल्तियां लिखा गया है, गौर करें) मिलेंगी, लेकिन तकनीकी जानकारी अहम होती है वहां।
यहां कुछ लोगों को भाषा को लेकर एक साझा (कु) प्रयास देखने को मिल रहा है, वह शेर क्या डायनॉसोर को ललकारने के लिए काफी है। हमें तो भाई गाय ही पसंद है। क्योंकि वह सादगी की प्रतिमूर्ति है। हमें न तो बकरी बनना है और न ही शेर। गाय को अगर हुड़पेठियेगा, तो वह सींग से मारकर घायल भी करती है। इसलिए यहां हमसे कमजोर होने की उम्मीद न करें। साथ ब्लाग जगत में जंगल राज कायम न करें, बाघ, बकरी, लोमड़ी सारे लोग यहां एक ही घाट पर पानी पीते हैं। हां लोमड़ियों से बचकर रहने की चेष्टा करनी चाहिए। वे नुकसान जरूर कर सकते हैं।
कबीरा खड़ा बाजार में, मांगे सबकी खैर
न काहू से दोस्ती, न काहू से बैर
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25 comments:
शुद्ध लिखने के लिए आग्रह और तकॆ की बात समझ में आती है, अशुद्ध लिखने का यह दुराग्रह क्यों?
http://srijansamman.blogspot.com/2009/08/blog-post_29.html
aa gaye na bandhu apni aukaat par
yaha aaukat ki kya baat hai sirji
अच्छा ?
आप अखबार में हैं ?
हम तो रोजाना अखबार पढ़ते हैं कभी देखा तो नहीं आपको !
फिर भी अखबारों में आजकल इतनी अशुद्ध हिन्दी लिखी जा रही है,
उससे आपके अखबार में होने की पुष्टि होती है,
बधाई स्वीकारें !
prabhat
aap ko yahaan haasya kae naam par aap par tanch kastey huae blogger milagae . vidrup hasya kitni bhi shudh hindi mae kyun naa likha ho rehtaa vidrup hii .
aap kaa yae aalekh bahut sateel jwaab haen un sab ki jinhonae aap ki piichhli post par kament mae aap aur aap jaese kaaii ko is prakaar sae smajhyaa jase kaksha chuthi ki class ho
bahut sae log seedha seedha dudh kaa dudh nahin likhtey kshir kaa khsir likh kar apnae vidvaan hanae kaa jhanda is hindi bloging mae fehraatey haen jahaan kewal hindi bhashi nahin haen
bs
if we go by the link psoted by you then it would be better to take hindi away from tech savy people
lets not forget its those techsavy people who gave hindi a place on blog tecnology
महात्मा गांधी जी ने कहा है कि सोते हुए को जगाया जा सकता है परंतु जो सोने का बहाना कर रहा है, उसे नहीं। बस, अब और नहीं .......
हालांकि इस बहस के सिरे की शुरुआत का मुझे पता नहीं है, लेकिन जब कोई व्यक्ति अपने प्रोफ़ाइल में पत्रकार लिखता है तब उससे यह अपेक्षा स्वाभाविक है कि वह खुद भी शुद्ध हिन्दी लिखकर दूसरों के समक्ष उदाहरण प्रस्तुत करेगा…। हिन्दी ब्लॉगिंग को अधिक ऊँचाई पर ले जाने के लिये यह आवश्यक भी है, ताकि नई पीढ़ी को अधिकाधिक सुन्दर हिन्दी पढ़ने को मिले, और लोग उससे कुछ सीख ले सकें…। आयेला-जायेला-हटेले-दीमाक की पाव भाजी जैसे शब्दों का उपयोग भी किया जा सकता है, लेकिन वही लोग करें जो अन्य उचित शब्द नहीं ढूंढ पायें तो सही है, लेकिन जो व्यक्ति दिन-रात शब्दों से खेलता हो, उसे जानबूझकर गलती तो बिलकुल नहीं करना चाहिये…। बाकी आपकी मर्जी… भाषा, वर्तनी और मात्राओं की गलती की तरफ़ कम से कम एक बार ध्यान आकृष्ट करवाया जाना चाहिये, फ़िर यह लेखक की मर्जी है कि वह उसमें सुधार करता है या नहीं। कोई भी व्यक्ति पैदा होते ही सब कुछ सीखकर नहीं आता, दूसरों को देख-सुनकर ही हम सब सीखे होते हैं…
प्रभात जी एक विनम्र निवेदन पर इतना कोप !
कृपा कर अपने परिचय में से यह वाक्य हटा दें -"मैं दैनिक हिन्दुस्तान रांची में बतौर सीनियर सबएडिटर कायॆरत हूं।"
फिर आप अशुद्ध भाषा का संधान करें !
मुझे अरविन्द जी के सुझाव पर आपत्ति है। आदरणीय प्रभात जी को "मैं दैनिक हिन्दुस्तान रांची में बतौर सीनियर सबएडिटर कायॆरत हूं।" के स्थान पर लिखना चाहिए "मैं दैनिक हिन्दुस्तान रांची में बतौर वरिष्ठ सह-संपादक कायॆरत हूं।"
इससे एक फायदा होगा कि हिंदीप्रेमी पाठक अपना माथा जरा जोर से ठोकने में सक्षम होंगे वरना किसका ध्यान जायेगा वह वाक्य हटा देने से ha ha
"वहीं कुछ ऐसा-वैसा लिख डालिये, तो देखिये एक घंटे के भीतर २० पसंद के चटके उस लेख पर डाल दिये जायेंगे।"
यह तो आदान-प्रदान की बात हुई ना! आप कहीं
चटका लगाएंगे तो बदले में चटका पायेंगे।
पता नहीं आपको किस कमेंट से आहत पहुंची पर हम जो लिखते हैं उसकी वर्तनी पर ध्यान देने को कहा जाय तो बेजा नहीं समझा जाना चाहिए। आज जो दो प्रतिशत ब्लाग जगत को कूड़ा कहते हैं, उसका कारण यही है। यदि हम थोड़ा ध्यान दें तो अच्छा लेखन और शुद्ध भाषा दोनों को साथ-साथ लेकर चल सकते हैं।
> ज्ञ = ज ~ ज टाइप करें तो आपको हमेशा के लिए क्षमायाचना से छुट्टी मिल जाएगी:) आशा है आप टिप्पणियों को सही प्रकाश में देखेंगे।
इस पोस्ट को पढ़ने के बाद पिछली पोस्ट पर भी गया। आपका मामला यह है कि ब्लॉग पर हिन्दी लिखने और छापने की राह में किसी प्रकार की बन्दिश नहीं है तो ब्लॉग लिखने वाला इस अनन्त स्वतंत्रता का उन्मुक्त होकर प्रयोग करेगा ही। उसे कोई क्यों रोके? आपका यह नजरिया स्पष्ट है। मुझे इससे कोई हकतलफ़ी नहीं है। डॉ. अरविन्द मिश्र को जाने क्यों हो गयी। मैं उन्हें समझाने की कोशिश करता हूँ।
यह दृष्टिकोण वैसा ही है जैसे कोई दाढ़ी-बाल बढ़ाकर, बिना कंघी किए, हफ्तों बिना नहाए, गन्दे और मुड़े-तुड़े कपड़ों में रहने का शौकीन हो जाय और कहे कि दूसरे हमें क्यों टोकें। हमारी मर्जी... हम तो ऐसे ही बिन्दास रहेंगे।
ठीक है भाई, बिन्दास रह लो।
लेकिन है क्या कि ऐसे भंगी टाइप दिखने वाले को कोई भला आदमी कभी-कभी नहा धोकर साफ-सुथरा हो लेने की सलाह दे ही डालता है। अपरिचित को नहीं बल्कि उसे जिसे वो अपना नजदीकी समझ बैठा हो। किसी समूह या सभा में भी ऐसे लोग अपनी उपस्थिति से सबको नवाजते हैं और कहीं मनोरंजन तो कहीं उपहास का पात्र भी बनते हैं। मैने तो बहुत प्रतिभाशाली लोगों को भी इस फक्कड़ सिन्ड्रोम का शिकार बनते देखा है। कालान्तर में प्रायः उन्हें गुमनामी के अन्धेरे में खोते भी देखा है।
सभ्यता के विकास के साथ हमारे रहन-सहन का एक सलीका तय हो जाता है जिसे अधिकांश लोग अपनाते हैं। सामान्य तौर पर साफ-सुथरी और इश्तरी की हुई वेश-भूषा और सजा-सँवरा चेहरा पसन्द किया जाता है। समाज में रहने वाला नॉर्मल व्यक्ति इन घोषित और अघोषित नियमों का यथासामर्थ्य ख्याल भी रखता है। खासकर यदि वो घर से बाहर निकलकर किसी सार्वजनिक स्थल पर जाता है तो जरूर कुछ बेहतर पहन-ओढ़कर और चेहरा चमकाकर जाना चाहता है। बातें भी देहाती इश्टाइल के बजाय शुद्ध खड़ी बोली में करना ठीक समझता है। इन बातों को सामाजिक संस्कार से भी जोड़ा जाता है। लेकिन कुछ लोग इसे बहुत तवज्जो नहीं देते। अपने तरीके से ही रहते हैं। संस्कार कोई थोपने की चीज तो है नहीं। लेकिन जो संस्कारहीन होकर रहना चाहता है उसे समाज भी धीरे-धीरे तवज्जो देना बन्द कर देता है।
भाषा का भी एक संस्कार होता है। वर्तनी की शुद्धता, व्याकरण के नियमों का सही पालन, लिंग-वचन का उचित प्रयोग करने से यह संस्कार पुष्ट होता है। लेकिन कुछ लोग यदि इन संस्कारों से अपने को बाँधकर नहीं रखना चाहते तो वे इसके लिए स्वतंत्र हैं। बिल्कुल टोकने की जरूरत नहीं है। इनकी पहचान और नियति दोनो स्पष्ट होते देर नहीं लगेगी।
प्रभात मुझे समझ नहीं आ रहा कि ये आप क्या लिख रहे हैं? आपके मूल तर्क से मेरी पूरी असहमति है। अशुद्धि चाहे टंकण की हो या स्वभाव वश वो पाठक पर अच्छा प्रभाव नहीं छोड़ती। अगर कोई किसी की गलती देख कर इंगित करता हूँ तो इसका मतलब ये नहीं कि वो उसे नीचा दिखा रहा है और साथ ही साथ उसका मतलब ये भी नहीं कि जिसने गलती दिखाई है वो प्रकांड पंडित है। गलती सबसे हो सकती है और सच्चे मित्रों का अधिकार और साथ ही कर्तव्य है कि उसे इंगित करें। मैं कई बार अपने परम मित्रों को टोंकता हूँ पर जब भी मुझे अपनी गलतियाँ दिखाई जाती हैं मैं सहजता से उसे स्वीकार कर अपनी पोस्ट में जब तक उसे सुधार नहीं लेता तब तक अच्छा महसूस नहीं कर पाता।
रही बात आत्मसम्मान की तो वो आत्मसम्मान किस काम का जिस की बुनियाद ही ढीली हो।
डॉ. अरविन्द को मेरी बात नागंवार गुजरी हो तो क्षमा प्रार्थी हूँ। कहना न होगा कि मैं आपके आशय से पूर्णतः सहमत हूँ।
पिछली टिप्पणी में मैने जब यह कहा कि ‘किसी समूह या सभा में भी ऐसे लोग अपनी उपस्थिति से सबको नवाजते हैं और कहीं मनोरंजन तो कहीं उपहास का पात्र भी बनते हैं।’ तो इसका आशय ‘बिन्दास’ लोगों से था।
प्रभात गोपाल झा साहब ,
मैंने आपको इसलिए टोका क्योंकि आपकी प्रोफाईल पढ़ लिया था -अन्यथा मुझे क्यों इस पचडे में पड़ना था -बस मित्रवत आपको आपकी जिम्मेदारी का बोध कराने आ पहुंचा -सिद्धार्थ जी ने बात और विस्तार से स्पष्ट कर दी! यही हिन्दी है जिसने मुझे कभी भागवत झा आजाद का प्रिय बनाया था -कभी मैंने इसी हिन्दी की मान प्रतिष्ठा हरिमोहन झा जी के खट्टर काका में पायी थी -और अब एक और झा से मुलाक़ात क्या इतनी निराशापूर्ण रहेगी ! नहीं बंधुवर एक बार पुनर्चिन्तन करें !
शुभकामनाएं !
हिंदी के प्रख्यात कवि-आलोचक एवं दस्तावेज पत्रिका के संपादक डॉ विश्वनाथ प्रसाद तिवारी का कहना है
“हम भाषा के महत्व को समझ रहे होते तो हालात ऐसे न होते। भाषा में ही हमारे सारे क्रियाकलाप संपन्न होते हैं। मीडिया भी भाषा के संसार का एक हिस्सा है। हम जनता से ही भाषा लेते हैं और उसे ज्यादा ताकतवर और पैना बनाकर समाज को वापस करते हैं। इस मायने में मीडियाकर्मी की भूमिका साहित्यकारों से ज्यादा महत्वपूर्ण है।”
उन्होंने कहा कि यह साधारण नहीं है कि आज भी लोगों का छपे हुए शब्दों पर भरोसा बचा हुआ है। किंतु क्षरण यदि थोड़ी मात्रा में भी हो तो उसे रोका जाना चाहिए।
“साहित्य की तरह मीडिया का भी एक धर्म है, एक फर्ज है। सच तो यह है कि हिंदी गद्य की शुरूआत ही पत्रकारिता से हुयी है। इसलिए मीडिया को भी अपनी भाषा के संस्कार, पैनापन और शालीनता को बचाकर रखना चाहिए। उन्होंने यह भी कहा कि यदि भाषा सक्षम है तो उसमें जबरिया दूसरी भाषा के शब्दों का घालमेल ठीक नहीं है।”
अशुद्ध वर्तनी गंदे कपडे के सामान है पहले लोग सलाह देते है "साफ़ कपडे पहनिए श्रीमान"
फिर विनती करते हैं अगर कोई फिर भी न माने तो लोग उससे दूर भागने लगते है
आपका क्या कहना है इस विषय में ?
वीनस केसरी
भइया जी
हिन्दी के प्रति सही गलत के लिए छूट और अंग्रेजी के लिए?
चलिए एक बात और चटका लेने पाने का व्यापार है ब्लाग पर एस पर मत जाइये पर हिन्दी को तो बख्शिए। कहा जायेगा कि हिन्दी वाले हैं तो हिन्दी सही लिखेंगे पर नहीं हिन्दी वाले ही हिन्दी को सबसे गलत लिख रहे हैं।
पिछले कई वर्षों से इस बात का प्रयास है कि कोई हिन्दी गलत न लिखे, धोखे में क्या हो जाये ये बात और है तो उसे सुधारते भी हैं। आप भी प्रयास करें।
हिन्दी जैसा सरल कुछ नहीं, हिन्दी जैसा कठिन कोई नहीं।
अब खुद को बदलने का प्रयास है। अब मैं खुद को उन आम ब्लागरों का हिस्सा मानता हूं, जिन्होंने हिन्दी में बात करने, लिखने और इसे आत्मसात करने की चेष्टा की है। ...आप मेरे साथ दोस्त और सहभागी बनकर हिन्दी को आम आदमी की भाषा बनाने में सहयोग करें।
बहुत बहुत धन्यवाद प्रभात जी, प्रोफाईल बदलने के लिए
जंगल राज में ऐसा नहीं होता, निर्मल वर्मा का एक उदाहरण देता हूं जब वह कान्हा गये थे सौभाग्य से उन्होंने शेर को देखा, उसने अभी-अभी शिकार किया था जंगली सूअर का। उन्होंने देखा कि सुबह की धूप थी, शेर ने उनकी ओर देखा और फिर अपने भोजन में व्यस्त हो गया। उसने अपने शक्तिशाली होने का हुंकार नहीं भरा, उन्होंने देखा कि महावत अपने बीड़ी पीने में मस्त है पूरा जंगल शांत हैं जहां कहीं किसी अहंकार का हिस्सा नहीं है यह पवित्र परिवेश था, क्या मनुष्य के रूप में हम ऐसा कभी अर्जित कर पायेंगे
प्रभात जी...आपने कहा है कि बाघ बकरी लोमडी सभी यहां एक ही घाट पर पानी पीते हैं....
तो बस कहना ये है कि....यदि पानी जहरीला हो ..दूषित हो..गंदा हो ..तो असर तो सबके ऊपर ही पडेगा न.....तो फ़िर ..कोशिश तो पानी को साफ़ करने की होनी चाहिये...न कि ..वही पानी सबको पिलाने की...
"ब्लाग जगत में जंगल राज कायम न करें, बाघ, बकरी, लोमड़ी सारे लोग यहां एक ही घाट पर पानी पीते हैं।" !!!
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