Thursday, October 22, 2009

आज की डायरी में इतना ही....

छठ के पारंपरिक गीतों के बीच अक्तूबर का ये महीना भी खिसक रहा है। रात में दफ्तर से लौटते वक्त कंपकंपी का एहसास होता है। ठंड वक्त से पहले आ गयी लगती है। इन सब परिवर्तनों के बीच झारखंड से नक्सल के खिलाफ केंद्र की मुहिम तेज होती जा रही है। रोज खबरें छप रही हैं कि किस तरह पारा मिलिट्री फोर्स जमा हो रहे हैं। केंद्रीय गृह मंत्री मामले को अमली जामा पहनाने के लिए आये हुए थे।

चुनाव की गरमी भी धीरे-धीरे बढ़ रही है। यानी कि कंपकंपी के बीच गरमी का अहसास खुद ब खुद हो जायेगा। उधर भाजपा की महाराष्ट्र में हो गयी कमजोर स्थिति ने और भी जमी हुई कड़वाहट को बढ़ा दिया है। समय के साथ इतने सारे बदलाव, दिमाग साथ नहीं देता। ठंड से सर्दी लग गयी, तो जैकेट खरीदना पड़ा। क्या करें, मजबूरी है, नहीं पहनें, तो ऊपरवाला अपने पास बुला लेगा।

जो भी हो, छठ की महिमा भरे गीतों ने मन को गदगद कर दिया है। सुना है कि मुंबई में एमएनएस भी जीत गयी है। जिंदगी चलती रहती है। रुकती नहीं। वैसे अगले महीने आतंकवादी हमले के एक साल हो जायेंगे और हम लोग फिर बरसी मनाते हुए आंसू बहायेंगे। चिल्लायेंगे। टाइम पास का खेल चलता रहेगा। अब शायद कहीं से भी कसाब की जिंदगानी की रिपोर्ट नहीं आ रही। पता नहीं क्या हुआ? वैसे बीती बातों को भुलाकर आगे ही बढ़ जाना चाहिए। आज की डायरी में इतना ही....

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