Sunday, November 29, 2009
फेसबुक की माया, क्यों नहीं सबको भाया
मेरे एक दोस्त फेसबुक या यूं कहें नेटवर्किंग साइट्स के प्रभाव या कुप्रभावों से सशंकित हैं। रिश्तों की गर्माहट की छद्य गरमी से फेसबुक गुदगुदा जाते हैं। शुरू में एक दोस्त बनाते समय फालतू-बकवास, बेकार या चिरकुटई न जाने क्या-क्या कह जाते हैं लोग। लेकिन ज्यों-ज्यों दोस्त बनते जाते हैं और लफ्फाजों की फौज बढ़ती जाती है, तो विचारों की धार भी चल निकलती है। फेसबुक यूं कहें, गहरी झील में मछली मारने जैसा है, जहां हम बंशी डाले ये सोचते रहते हैं कि अभी एक मछली फंसी। फेसबुक पर दोस्त अपने समान स्तर के दोस्त को ढूढ़ते हैं। वे सोचते हैं कि हमारे जैसा सोचनेवाला, हमारी चाहत को थपथपानेवाला दोस्त मिल जाए। इसी चाह में स्टेटस में लिखते हैं। शायरी करते हैं। ब्लाग का लिंक देते हैं। सच कहूं, तो फेसबुक पर दोस्ती के लिए आये निमंत्रण को मैं नहीं ठुकराता। यार जो भी यहां आता है, वह जानता है कि ये नेटवर्किंग हैं, यानी तार से तार जोड़ने का खेल। आप आते हो और इसमें फंसते चले जाते हो। फिर आपका दिमाग अवचेतन को धिक्कारता है कि चिरकुटों की भीड़ में तुम्हारा जैसा इंसान कहां से आ गया। तुम यूटोपिया की तलाश में लग जाते हो। वह आदर्श स्थिति कभी सामने नहीं आती। जद्दोजहद चलती रहती है खुद से कि दोस्त बनाने के इस खेल को चालू रखें या नहीं। लेकिन आप ना नहीं कर पाते। क्लिक कर नए दोस्त बनाते हैं। वाल पर लिखते हैं और कमेंट्स भी देते हैं। हमें ये समझना होगा कि फेसबुक भी उसी माया का हिस्सा है, जिसके जाल में आप भरी दुनिया में फंसते चले जाते हैं। ज्यादा लोगों तक पहुंच पाने की चाह या ज्यादा नाम पाने की चाह। फेसबुक उसी का एक माडरेट रूप है। इस असलियत को स्वीकार करने में हर्ज कैसा। इसे समझो तभी ठीक, और नहीं समझो, तभी ठीक।
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1 comment:
सही विश्लेषण किया फेस बुक का.
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