Saturday, December 26, 2009

भाषाई संस्कार का कबाड़ा करते क्षेत्रीय चैनल

दिल्ली के चैनलों को देखते हुए भाषाई रूप से खुद को समृद्ध माननेवाले अब शुतुर्गमुर्ग बनने की तैयारी करते दिख रहे हैं। ऐसे लोगों में वे दर्शक भी हैं, जो पहले इन्ही तथाकथित राष्ट्रीय चैनलों को कांटेन्ट के नाम पर गरियाते थे। हर शहर में खुल आए छोटे-बड़े चैनलों ने भाषाई संस्कृति को बिगाड़ कर रख दिया है। मीडिया से अपेक्षा की जाती है कि वह शुद्ध और सही भाषा का इस्तेमाल करे, लेकिन जैसी भाषा और जिस शैली का इस्तेमाल हो रहा है, उसमें कैसी परंपरा विकसित होगी, ये भी सोचने की बात है। क्या दिल्ली से इतर दूसरी जगहों के चैनलों का स्तर दोयम होता है या वहां जो लोग काम करते हैं, उन्हें इससे कोई मतलब नहीं होता है कि शुद्धता का भी अपना महत्व है। अखबारों को बात-बात पर शुद्धता के लिए निशाना बनानेवाले लोग इन चैनलों को लेकर बेपरवाह नजर आते हैं। शायद इसलिए कि उन्हें उनसे कोई अपेक्षा नहीं है या फिर इसलिए कि चैनलवाले नहीं सुधरने की मंशा से उन्हें परिचित करा चुके हैं। जिस प्रकार से क्षेत्रीय स्तर पर चैनल खुल रहे हैं और जैसी गला काट प्रतियोगिता मची है, उसमें भाषाई अपसंस्कार की बू नजर आती है। जोर-जोर से चिल्ला कर बातें रखना और धौंस संस्कृतिवाले शब्दों और बातों को रखते रहना ही लोकप्रियता पाने या टीआरपी बढ़ाने का जरिया नजर आता है। जबकि दर्शक या पाठक हर चैनल को उसकी सामग्री और स्तर के आधार पर ही देखने का मन बनाती है। ऐसा उन क्षेत्रीय चैनलों में बैठनेवाले लोगों को शायद समझ में नहीं आता है। हमारा मानना है कि जो चीजें मीडिया के दायरे में आती हैं, उन्हें भाषाई संस्कारों और तहजीब को आगे बढ़ानेवाला होना चाहिए। अगर ऐसा नहीं हो रहा है, तो वे हमारे समाज को जो नुकसान पहुंचा रहे हैं, उसका खामियाजा उन्हें नहीं, तो समाज को जरूर भुगतना पड़ेगा।

1 comment:

भारतीय नागरिक - Indian Citizen said...

हमने अपनी समृद्ध संस्कृति को जितना गर्क करने का काम किया है उतना कोई और नहीं कर सकता. यही बात भाषा पर भी लागू होती है.

Prabhat Gopal Jha's Facebook profile

LinkWithin

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...

अमर उजाला में लेख..

अमर उजाला में लेख..

हमारे ब्लाग का जिक्र रविश जी की ब्लाग वार्ता में

क्या बात है हुजूर!

Blog Archive