Tuesday, January 12, 2010

मटन जमकर खाएं और फिर बोलें कि मिर्ची काहे है।

मुझे टीआरपी-टीआरपी या कहें एबीसी के आंकड़े आदि पर बहस कुछ जम नहीं रही। ये तो वही बात है कि मटन जमकर खाएं और फिर बोलें कि मिर्ची काहे है। आप अखबार निकालते हैं या चैनल चलाते हों, आपका प्रयास ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचना रहता है। इसके लिए सारे हथकंडे अपनाए जाते हैं। पैकेजिंग की जाती है। कंटेंट शानदार बनाया जाता है। पेज अच्छे दिए जाते हैं। प्रस्तुतिकरण बेहतर किया जाता है। दर्शकों या पाठकों की रुचि के स्तर पर स्थापित करने की कवायद जारी रहती है। बहस का केंद्र बिंदु ये है कि टीआरपी के चक्कर में कंटेंट का बेड़ा गर्क होता जा रहा है। बेड़ा गर्क क्यों होता जा रहा है, यही एक बड़ा सवाल है? सुरसा का मुंह काफी बड़ा था। वह लगातार बड़ा होता जा रहा था। हनुमान जी ने क्या किया था। कुछ नहीं, बस आकार छोटा कर निकल गए थे। आपका जो ये आकार, चैनल हो या अखबार का, दिन ब दिन बड़ा होता जा रहा है, पहले उसे तो उस लिहाज से लायक बनाया जाए कि फायदा या हानि की चोट को सह सके। सारा नुकसान हाइली प्रोफेशनल एप्रोच हो जाने से हो रहा। जो पत्रकार हैं, वे भी दिल्ली में बैठ पूरे देश की राजनीति को नापने की कोशिश में जुटे हैं। सोसाइटी का भान नहीं और कंटेट के लिहाज से नकल में सानी नहीं रखते। दर्शकों को बेवकूफ समझने की मानसिकता से कम से कम अलग हटकर जिस दिन इलेक्ट्रानिक चैनल चलने लगेंगे, उनका बेड़ा पार
हो जाएगा। भारतीय दर्शक वही है, जो हम लोग, बुनियाद, उड़ान और पुराना आज-तक, द वर्ल्ड दिन वीक जैसे कार्यक्रम देखता था। उनकी आदतों को तो खुद चैनलों ने ही प्रतियोगिता के नाम पर बिगाड़ा है। भाषा का ठिकाना नहीं रहता और यहां कंटेट की बात की जाती है। आप पहले प्रस्तुतिकरण सुधारिए, कुछ हद तक मामला अपने आप साफ हो जाएगा। चैनलों पर ही बुरी नजर आने का एडवर्टाइजमेंट आता रहता है। जिस दिन समाज की सोचते हुए चैनलवाले ऐसे भ्रामक एड नहीं लेंगे, उसी दिन से क्रांति भी हो जाएगा। यहां टीआरपी की बात खुद के मुंह मियांमिट्ठू वाली होती जा रही है। जो दिग्गज होते हैं, वे बातें नहीं करते, वे अमल करते हैं। अगर आप उस कुर्सी पड़ बैठे हैं, जहां से नियंत्रण रेखा खींची जाती है, तो आप पर है कि आप पहलेवाली रेखा से अलग कितनी बड़ी या छोटी रेखा खींचते हैं। जिस टीआरपी के टेंशन से अलग हटकर खासकर इलेक्ट्रानिक मीडिया के लोग सोचने लगेंगे, उसी दिन से स्थिति भी सुधर जाएगा। इसलिए टीआरपी के नाम पर किचकिच से किसे बेवकूफ बनाया जा रहा है, ये भी एक बड़ा सवाल है।

2 comments:

Udan Tashtari said...

सार्थक चिन्तन!!

विनीत कुमार said...

http://janatantra.com/2010/01/12/trp-debate-on-facebook/

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