Tuesday, February 16, 2010

फैशन के तौर पर दोस्त बनाये रखने से क्या फायदा



मोबाइल पर मैसेज भेजकर एक साथ सैकड़ों लोगों को पीआर स्ट्रांग करने की तैयारी कर रहा हूं। होली में, दीवाली में, एक साथ पहले इतने लोगों को विश नहीं कर पाता था, लेकिन अब उंगलियों के सहारे बटन दबाकर मैसेज टिपिया कर भेज देता हूं। मेरी बातें, मेरी जिंदगी फास्ट हो गयी हैं। फास्ट ट्रैक पर सरपट दौड़ रही है। उनके बीच करीब रहनेवाला दोस्त यूं ही कभी मिल भी जाता है, तो घर नहीं आता। क्योंकि उसकी लाइफ बिजी है। अब जीमेल पर ही बज पर ही कमेंटों का दौर भी हो जाता है।

कुछ ऐसे ही तकनीकी दौर के शिखर पर खड़े होकर हम संबंधों की नयी रचना करने की कोशिश करते हैं। एक दिल की बात कहना चाहता हूं कि फेसबुक पर हमारे ६५० से ज्यादा दोस्त हो गए। उसमें से कुछ नामचीन लोग भी हैं। उन्हीं में से एक को मैंने चैट बॉक्स से पोक करके बात करने की कोशिश की, शायद कुछ बात हो। लेकिन उनके पास समय नहीं था। वैसे ६५० दोस्तों में से कई अब तक अनजान हैं। सिर्फ उनके चेहरे दिखते हैं। क्या ऐसे अनजान लोगों को दोस्त बनाये रखना जरूरी है? सोचता हूं कि जो बच गए रिश्ते या दोस्ती है, उन्हें ही निभाता चलूं। ये सोशल नेटवर्किंग साइट पर अगर एक हजार दोस्त भी बन जाएं और टि्वटर पर दो हजार फॉलोवर भी और उनके हमारे साथ किसी प्रकार का संवाद नहीं हो, तो फैशन के तौर पर उन्हें दोस्त बनाये रखने से क्या फायदा

पहले दोस्त बनाने से पहले सोचता नहीं था। लेकिन अब ये सोचता हूं कि ये एक बकवास काम है। यहां बकवास इसलिए कि इसमें भी अपना स्वार्थ है कि हमारी बात ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचे। जबर्दस्ती संबंधों को ढोए जाने से बेहतर है कि उन संबंधों को तोड़ दिया जाए। जब हम रिश्ते नहीं बनाये रख सकते, जब संवाद ही नहीं हो पाते, तो फिर इन्हें ढोया क्यों जाए? 


हमारे पड़ोस में, हमारे दोस्तों में एकल परिवार की अवधारणा शायद इन्हीं कारणों से सफल हो रही है। जब रिश्ते नहीं कायम रह सकते, तो उन्हें तोड़ देना ही बेहतर है। सबसे बड़ी चीज खुशी है। जब व्यक्तिगत स्तर पर अहं को संतुष्टि मिले और संवादों का एक प्रवाह कायम हो, तभी जीवन की सार्थकता है। सीधे शब्दों में कहें, तो फेसबुक अब एक पागलपन की तरह लगता है, जब टिपिया तो आते हैं, लेकिन वहां जो संवाद होता है, वह सिर्फ उच्च मानसिक स्तर या आदर्शों का बोध कराता है, जो जाहिर तौर पर असलियत का उलटा रूप होता है। हम जो नहीं होते, उसे वहां दिखाने जाते हैं। व्यावहारिक स्तर पर भी उससे कोई फर्क नहीं पड़ता, क्योंकि समस्या के हल के लिए जमीनी स्तर पर कोई कार्य भी नहीं होता।

सिर्फ बड़ी-बड़ी बातें लिख देने और उन पर टिप्पणियों के लालच में हम जो समय गुजार देते हैं, उसका इस्तेमाल किताबों और पत्रिकाओं में लगाया जाए।

नहीं चाहिए ऐसी दोस्ती
जहां न मिले कोई झप्पी
न मिले कोई शाबासी
और न मिले दिल को दुखानेवाले दो-चार शब्द
बस नमस्ते-नमस्कार करके
एटिकेट-आदर्शोंवाले दायरे में 
बंधकर, नहीं मार सकता 
खुद को
मुझे जीना है लंबा
बेहतर रिश्तों के साथ
भले ही दो-चार हों
लेकिन वे दिलवाले हों 
और उनमें हो, एक अपनापन
नहीं चाहिए ऐसी दोस्ती
जहां न मिले कोई झप्पी
न मिले कोई शाबासी


हमने तो फेसबुक पर अपने स्टेटस में कमेंट भी डाला कि फेसबुक के दोस्तों, बड़ी बातें तो कर लेते हो, लेकिन क्या दिन में दो घंटे भी अपने करीबी लोगों के लिए निकालते हो क्या?

ये एक ऐसा सवाल है, जो कि रह-रहकर मेरे मन में कौंधता है और तीर की तरह मन में चुभता है। ये एक ऐसा सवाल है, जो इंटरनेट प्रेमी हर शख्स के सामने सवालों का दौर खड़ा करेगा।

5 comments:

भारतीय नागरिक - Indian Citizen said...

सहमत.

Sunita Sharma Khatri said...

बहुत सही लिखा है जो भी लिखा है।

प्रवीण त्रिवेदी said...

सवाल चुभते हैं आपके ....पर कुछ और भी सवाल हैं जिनके उत्तर अपने पास नहीं सो इसके आगे मौन-व्रत !

Tarun Bhardwaj said...

maana ki mitron ki ati sankhya theek nahi..par FB or anya social networking site saagar hain..mitrata moti hai..athah sagar me khangalenge to moti milga..iska arth ye nahi ki sagar vyarth ho gaya hai...50-100 nishane lagane ke baad ek nishana sahi lagta hai...aayeyi is baat par bhi vichar kare...sakaratmak rahe...kya pata kab ek muskan, ek tippani ..ek baatchhet(chat) jeevan bhar ke rishte me badall jaye..yahi jeevan hai..yahi facebook hai...

नीरज मुसाफ़िर said...

सिर्फ बड़ी-बड़ी बातें लिख देने और उन पर टिप्पणियों के लालच में हम जो समय गुजार देते हैं, उसका इस्तेमाल किताबों और पत्रिकाओं में लगाया जाए।

एकदम सहमत

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