रिजर्वेशन को लेकर इतना हल्ला। इतनी जोर-आजमाइश। शर्म से पानी-पानी हो जाना पड़ता है। हमारे यहां झारखंड में रिजर्वेशन, खतियान और न जाने कितने ऐसे ही मसलों के कारण सरकारी नियुक्तियों में इतने पेंच हो गए हैं कि नौकरी मिलनी मुश्किल दिखती है। नौकरी पाने के लिए लंबी जद्दोजहद झेलने पड़ते हैं। सरकार को जब महंगाई, विदेश नीति, नक्सल समस्या जैसी चीजों को लेकर सदन में बहस करानी थी, तो इस आरक्षण को लेकर बवाल मच गया। लाइफ में रिजर्वेशन का चक्कर आज तक समझ में नहीं आया। जो कमजोर हैं, उन्हें सहारा देकर आप कितना मजबूत बनाएंगे। सहारा पाकर चार कदम चलकर फिर सहारे की जरूरत होगी। लाइफ में जो एक पाठ हमारे बड़े चिंतकों ने नहीं पढ़ाया, वह ये कि कोशिश एक शब्द जरूर है, लेकिन उसके संदर्भ काफी व्यापक है। उसी कोशिश को कमजोरों की जिंदगी में लागू करने की कवायद होनी चाहिए। जिस रेस के लिए आरक्षण चाहिए, उस रेस में आने के लिए सारी सुविधाएं मुहैय्या कराएं। कमजोर तबके को वे सारी चीजें दें, जो उन्हें मजबूत बनाए। खुद के शरीर को मजबूत करने के लिए खुद कसरत करनी होगी, कोई दूसरा अपने मांसल को हमारे शरीर में जोड़कर हमारी मांसपेशियां मजबूत नहीं बनायेगा। राजनीतिक तो बस दो-तीन दिन की चिल्लपों कर बाजार बनाने की फिराक में रहते हैं। किसी को बिहार में होनेवाले चुनाव की चिंता सता रही है, तो किसी को अपनी राजनीतिक बिसात को आगे बढ़ाने की। मंडल के दौर के बाद जो नौटंकी हुई, उसमें सरकारी नौकरियों के लाले पड़ गए। निजीकरण की शुरुआत कर दी गयी। अब निजी क्षेत्र में, किसी और की दुकान में भी राजनीतिक दल आरक्षण खोज रहे हैं। आरक्षण मिले, लेकिन इसमें भी एक समय सीमा निर्धारित हो। स्थिति तो ऐसी हो गयी है कि कोई कुछ खुलकर बोलता ही नहीं। ओबामा ने राष्ट्रपति बनने से पहले सारी चुनौतियों का सामना किया। हमारे यहां ओबामा क्यों नहीं पैदा होता, ये सोचिये। खुद के नसों में आरक्षण का धीमा जहर हमने इतना भरा है कि हमारा समाज वैचारिक रूप से उसका गुलाम हो गया है। हमारे नेताओं की राजनीतिक सोच वहीं से शुरू और खत्म होती है। ये एक ऐसा नासूर होता जा रहा है, जहां खुली प्रतियोगिता के मायने खत्म हो जाते हैं। सर्वश्रेष्ठता के मायने दब जाते हैं। किसी को इतना मत
गिराओ कि उसका वजूद ही खतरे में पड़ जाए।
Monday, March 15, 2010
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2 comments:
सही विचार है ।
होगा एक दिन ओबामा भी पैदा..
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