Saturday, April 3, 2010
वो अब नहीं है..
आज एक नर्सिंग होम में जाना हुआ। वहां रिसेप्शन पर बतौर हेड एक महिला बैठा करती थीं। ऐसा कहें, चार-पांच बार जाने के दौरान उनकी व्यस्तता और कर्मठता ने जेहन में ऐसा खाका खींचा था कि मन कर्म करने को प्रेरित होता था। यू कहें हाइपर एक्टिव। शायद नौ महीने के बाद फिर वहीं जाना हुआ। रिसेप्शन पर दूसरी महिला थी। काम हो रहा था बेहतर, पर धीमी गति से। जाहिर है, सवाल पूछ बैठा, पहली वाली मैडम यहां नहीं हैं क्या? सवाल ऐसा था कि चुभने का कोई सवाल नहीं था। शांत जवाब था-नहीं हैं, इस दुनिया में ही नहीं हैं। क्यों, क्या हुए ऐसा? फिर दूसरा सवाल पूछ बैठा। जवाब आया, उन्होंने आत्महत्या कर ली। मन विश्वास नहीं कर पा रहा था कि जिससे मन कर्म की प्रेरणा लेता था, वह जीवन से हार मान ले। विश्वास नहीं हुआ। यूं कहें, विश्वास तो अब भी नहीं है। क्या हम जो देखते रहते हैं, वह सच नहीं होता। हर चीज, हर व्यक्ति अपने भीतर एक दूसरा सच छिपाये फिरता है, जो उसके सामने के अक्स से एकदम अलग होता है। दुख की धारा बहती रहती है। किसी जिंदादिल के जिंदगी से हार मानने की खबर ज्यादा चोट पहुंचाती है, सिवाय इसके कि कोई हारा हुआ आदमी, जिंदगी को दांव पर लगा दे। इस दुनिया में हर चीज नहीं मिल सकती। जो व्यक्ति हाइपर एक्टिव हैं, वे भी अपनी आक्रामकता के सहारे मन की भावनाओं को छिपाने की कोशिश करते हैं। एक ऐसे द्वंद्व के साथ, जो कोशिश करती है कि समय के साथ सबकुछ ठीक हो जाएगा। लेकिन ऐसा नहीं होता। शायद एक शांति हर किसी को चाहिए, जो जिंदगी की गाड़ी को कंट्रोल करता रहे। उस महिला की आत्मा को शांति मिले, हम तो अब यही कह सकते हैं।
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4 comments:
मैं आपसे सहमत हूं. जिन्दा का मर जाना ही अखरता है जो पहले ही मर चुका है उसके जिन्दा रहने और न रहने से कोई खास फर्क तो पड़ता नहीं है.
दुखद।
मन के भाव कहाँ व्यवहार में आते हैं ।
मानवीय व्यवहार एक जटिल पहेली है..
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