इलेक्ट्रानिक मीडिया ने दो दिनों में दंतेवाड़ा और सानिया की खबरों के प्रसारण के समय में सानिया की खबरों को ज्यादा तरजीह दी। लाइव टेलीकास्ट किया। ऐसा लगा कि शोएब भाई साहब के मामले ने दो देशों के संबंधों को बिगाड़ने की स्थिति पैदा कर दी है। सीधे तौर पर कहने को मन करता है कि इलेक्ट्रानिक मीडिया टीआरपी के नाम पर दिमाग से पैदल हो गया है। दिमाग से पैदल होने का मतलब है कि उसे देश और समाज के सामाजिक सरोकारों से कोई मतलब नहीं है। शोएब कैसे हैं, क्या हैं, इसे लेकर इलेक्ट्रानिक मीडिया परेशान है। कहीं भी किसी चैनल में किसी शहीद के परिवार की स्थिति को लेकर कोई रिपोर्ट नजर नहीं आयी। क्या शहादत को इस तरह नजरअंदाज करना जायजा है। ये एक अहम सवाल है। जिस प्रकार मुंबई के समय मीडिया एक हो गया था, सारी खबरें पीछे छूट गयी थी और वही एक खबर सबके लिए थी। वैसा ही मामला दंतेवाड़ा भी है। दंत्तेवाड़ा में मारे गये जवानों की सूची इस बार सबसे लंबी थी। इलेक्ट्रानिक मीडिया यहां इस बार चूक गया। सानिया मिर्जा एपिसोड में उसने अपना चरित्र दिखा दिया है। जनसरोकारों से दूर होती इस इलेक्ट्रानिक मीडिया (खास कर हिन्दी) को अब ये सोचना होगा कि उसने अपनी धार क्यों खो दी। दंतेवाड़ा की घटना के बाद नेशनल कहे जानेवाले चैनलों को उन शहीद जवानों के परिवारों की खोज खबर के लिए जान लगा देनी चाहिए थी। उन खामियों का परत दर परत खुलासा किया जाना चाहिए था, जिसकी उसे अभी जरूरत है। रिपोर्टिंग हुई भी, तो बस खानापूर्ति के लिए। सच कहें, तो अंग्रेजी मीडिया हिन्दी की इलेक्ट्रानिक बिरादरी से ज्यादा प्रभावी तरीके से काम करता नजर आता है। ऐसा क्यों है, पता नहीं। लेकिन इस पर विश्लेषण होना चाहिए। हिन्दी मीडिया में खबरों के नाम पर सिर्फ क्रिकेट, आइपीएल या फिल्मी तड़का ही क्यों नजर आता है। नहीं तो यू ट्यूब से उठाया हुआ वीडियो ही क्यों दिखाकर टाइम पास किया जाता है। कहीं न कहीं दर्शकों को बेवकूफ बनाया जा रहा है। क्षेत्रीय इलेक्ट्रानिक चैनलों की बात जाने दें, लेकिन नेशनल कहे जानेवाले चैनल जिम्मेदारी नहीं समझ रहे, ये सोचनेवाली बाते हैं। इसी मीडिया ने दिल्ली में हुए कई कत्लों का परत दर परत खुलासा किया। कई अन्य चीजों को सामने लाने की जिम्मेवारी उठायी। लेकिन दंतेवाड़ा मामले में ये फिसड्डी साबित हुआ। क्योंकि उसके पास शायद ऐसी कोई जमीनी जानकारी नहीं है, जिससे एक पूरी व्यवस्थागत रिपोर्टिंग की जा सके। सानिया
एपिसोड का दंतेवाड़ा घटना की तुलना में ज्यादा महत्व देना देश के साथ विश्वासघात है। जनसरोकार से दूर होती हिन्दी इलेक्ट्रानिक मीडिया का ये चरित्र खतरनाक है। इससे उसे कम, देश को ज्यादा नुकसान है।
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8 comments:
सही कहा आपने...हमारी मीडिया कितनी हल्की है इसका जिंदा सबूत है ये। लेकिन ये हाल सिर्फ मीडिया का ही नहीं है, हमारी पूरी हिंदी पट्टी का ही यहीं हाल है-बगल के घर में आग लग जाए हमें क्या। हाल में नक्सली हिंसा में मारे गए लोगों के परिजनों को छोड़कर देश में मानों किसी को कुछ फर्क ही नहीं पड़ा है। हिंदी चैनल वालों ने इस बात को भांफ लिया है, और सानिया दिखाए जा रहे हैं।
गन्दा है पर धंधा है ये....
धन लोलुपता की हद है ये!
कुंवर जी,
सादर वन्दे!
ये देश का चौथा स्तम्भ (जिसे ये खुद ही मानते हैं, आज देश मानने को तैयार नहीं है ) भी संसदीय हो चला है, कि पैसा कमाओ देश मिटाओ, चैनल चलाओ.
रत्नेश त्रिपाठी
कई चैनल वाले और अखबार वाले भी अब पेड-न्यूज की वकालत कर रहे हैं. ठंडे की जुगाड़ के लिये तो मैंने एक बड़े तेज चैनल वाले के लिये भी आया हुआ देखा..
सानिया एपिसोड का दंतेवाड़ा घटना की तुलना में ज्यादा महत्व देना देश के साथ विश्वासघात है।
सहमत
तो देखते क्यों हो.....बंद करदो इन्हें देखना.....ये एक षड्यंत्र है देश के जन मानस पर कब्जा करने का
sharm unko nahee aati
दन्तेवाड़ा फिर रिपीट होना है। इन मेम साहब की शादी शायद इस छाप में फिर न हो!
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