Tuesday, May 11, 2010
झारखंड में बीपीएल पोलिटिक्स पोलिटिक्स...
अगर एक पाठक या नागरिक के तौर पर आप हमसे झारखंड की राजनीति के बारे में पूछियेगा, तो हाथ जोड़ दूंगा। भैया बिहार की राजनीति तो समझ में आती है, लेकिन यहां झारखंड में बीपीएल पोलिटिक्स यानी बिन पेंदी का लोटा पोलिटिक्स को देखकर मन हाय-हाय करता है। क्षण में पलटी और क्षण में अलटीवाला सिस्टम मुंह चिढ़ाता है। या तो यहां के राजनीतिकों को लज्जा नाम की चीज खत्म हो गयी है या उनके अंदर इतनी कूवत नहीं बची है कि खुद के बल पर सिस्टम में आगे बढ़ें। ये राज्य आदिवासी और गैर-आदिवासी मुख्यमंत्री के नाम पर ऐसी जगह पर खड़ा हो गया है, जहां से कोई विकास की धारा निकलती नहीं दिखती है। कोई ऐसी किरण नहीं दिखाई देती है कि विकास का रास्ता दिखाई दे। एक तरह हड़ताल करते कर्मचारी हैं, तो दूसरी तरफ है लचर होती कानून व्यवस्था। झामुमो एक पार्टी के तौर पर विश्वास खो रही है और अंतरविरोध के स्वर से उसकी साख लगातार कमजोर हो रही है। वहीं भाजपा जैसी पार्टी अपनी लज्जा को सार्वजनिक तौर पर चौराहे पर नीलाम कर रही है। इस देश ने भाजपा से एक बड़ी पार्टी के रूप में कांग्रेस का विकल्प बनने की अपेक्षा की थी। लेकिन सत्ता की लालच ने उनके पांव को भटकाव की दिशा में ठेल दिया है। बेशर्म हो गये भाजपा नेता गडकरी के नेतृत्व में ऐसा गुल खिलायेंगे, ये आशा नहीं थी। आडवाणी सरदार पटेल बनने के चक्कर में ऐसे चक्कर में फंस गये हैं कि उनके खुद के अस्तित्व पर सवालिया निशान लग गया है। हमें तो कम से कम मायावती की राजनीति अच्छी लगती है। वे जो करती हैं, डंके की चोट पर करती हैं। उनकी राय, उनकी कथनी में फर्क मामूली होता है। झारखंड में जो हो रहा है, वह शर्मनाक है। करीब तीन सप्ताह से पूरी व्यवस्था एक सक्षम सरकार के इंतजार में पंगु हो गयी है। यहां की जनता खुद के भविष्य के इस तरह खात्मे की ओर बढ़ता देखकर कलप रही है। न जाने आगे क्या हो?
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3 comments:
आगे क्या होगा रामा रे ; जाने क्या होगा मौला रे !!??
राजनीति का कीचड़, स्वच्छ सरकार देने के नाम पर ।
कभी कभी लगता है ये राज्य बने ही क्यों! :(
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