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Friday, February 18, 2011

नेशनल गेम्स का जलवा है बरकरार

चलिए धीरे-धीरे नेशनल गेम्स के चार दिन बीत चले. नेशनल गेम्स का जलवा बरकरार है. शहर में बूटी मोड़ से होते हुए आप जब होटवार की ओर खेलगांव में प्रवेश करेंगे, तो आपको जिस विशाल आकार से रूबरू होना पड़ेगा, वह इस बात का संकेत दे जाता है कि झारखंड के प्लेयर्स सुविधाओं के लिए नहीं तरसेंगे. उन्हें अपनी स्पोर्टिंग स्किल को सुधारने के लिए पूरा ओपेन स्पेस मिलेगा. यहां फ्राइडे को वैसे ही मेगा स्पोर्ट्स कांप्लेक्स जाने की इच्छा हुई. वहां जाने पर स्विमिंग काम्पटीशन में प्लेयर्स को भाग लेते देखकर ये जरूर लगा कि हमारे स्टेट में इस नेशनल गेम्स के बहाने स्पोर्ट्स के लिए बेहतर माहौल बनने लगा है. ‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍छउआ का मन मोहनेवाला रूप आपको कुछ देर के लिए उसे निहारने को जरूर मजबूर करेंगे. स्कूली बच्चों के लिए कम से कम मेगा स्पोर्टिंग कांप्लेक्स किसी टूरिस्ट स्पाट से कम नहीं है. एक लाइन से बच्चों को स्पोर्टिंग इवेंट देखने के लिए आते देखना ये बता जाता है कि आनेवाले समय में इन्हीं में से कोई हमारा और देश का नाम चैंपियन बनकर रोशन करेंगे. एक बात सोचता हूं कि इन घोटालों के बीच जब इतने बेहतर इंफ्रास्ट्रक्चर को बनाया जा सकता है, तो अगर दिए गए पैसे का सही तरीके से इस्तेमाल हो, तो इंटरनेशनल लेवल को क्यों नहीं छूएं. हमारे बीच से कोई सानिया, बिंद्रा या दीपिका निकलती है, तो हम पीठ थपथपाते हैं. लेकिन ये सारी उपलब्धियां सरकारी सहायता की अपेक्षा व्यक्तिगत प्रयास का नतीजा ज्यादा होता है.अगर सही तरीके से पैसे का योजनाबद्ध इस्तेमाल हो, तो इंटरनेशनल चैंपियंस की फौज खड़ी की जा सकती है.


























Sunday, February 13, 2011

चमनलाल और नेशनल गेम्स का चक्कर

नेशनल गेम्स में कार्यक्रम पेश करते सुखविंदर
कार्यक्रम पेश करते कलाकार
११ फरवरी की रात एक जलजला सा आ गया था. चमनलाल परेशान हो गए. उन्हें नेशनल गेम्स का पास ही नहीं मिला था. वे इतने परेशान हो गए कि जान-पहचान वाले मीडिया के लोगों को फोन लगाया. कहा-भइया आप लोगों को तो बड़ा पहुंच है, एकठो पास दिलवा दीजिए.अब मीडिया वाले ऐसा होने के बाद मुंह ताकने लगे. वे कैसे कहते कि उन्हें खुद पास नहीं मिला है.बाहर तो हांक देते हैं कि ऐसे-वैसे हैं, लेकिन यहां तो खुदे पूछ नहीं है.चमनलाल ने नेतवन सब के पास गए, तो वे भी हाथ उठा चल दिए. चमनलाल ने ठान लिया कि नेशनल गेम्स में समीरा रेड्डी और अमिशा पटेल आ रही हैं और वो नहीं जाएंगे , ऐसा हो नही सकता. चमनलाल शिकायत लेकर पहुंच गए मीडिया के दरबार में. मीडिया वाले उनकी शिकायत सुन खाली मुस्कुरा दिए. वो बोले-चचा चिंता मत कीजिए, कोनो ना कोना सेटिंग करके पास दिला देंगे. चमनलाल बोले-मीडिया का पावर को क्या हो हया है. एकठो पास तक नहीं दिला सके हैं. अब चमनलाल अपना हाइ कांटेक्ट को यूज करने के लिए दौड़ पड़े. चमनलाल को एक पास मिल गया जैसे-तैसे. अब चमनलाल नेशनल गेम्स में पहुंच गए कार्यक्रम देखने. वहां पर समीरा रेड्डी का डांस उनको दिखिये नहीं रहा था. वैसे लेजर शो देखकर मन चंगा हो गया. चमन लाल अमिशा पटेल को भी देखे. वे एक बात जरूर कहते हैं कि अर्जुन मुंडा ने बाजी मार ली है. इस बार गेम्स कराके दिखा दिए हैं. चमनलाल लेकिन एक बात पूछते हैं कि लोकल कलाकार सबको क्यों नहीं महत्व दिया गया? वे बेचारे कब मौका पाएंगे. इ सवाल मन को छू गया. चमनलाल सवाल मास्टर हैं. बड़ी सवाल करते हैं. वैसे चमनलाल आज भी नेशनल गेम्स का गेम सब देखने गए. लेकिन पब्लिक नदारद थी. चमनलाल को अब क्लोजिंग सेरेमनी का इंतजार है. बोले हैं-दो सप्ताह बाद अब फिर मिलते हैं. हम भी बोले ठीक है..तब तक के लिए पीछा छोड़िए.

Thursday, February 10, 2011

गेम्स के बहाने रांची की तकदीर और तस्वीर दोनों ही बदल रही

चलिए बताते चलें कि रांची में नेशनल गेम्स होने जा रहा है. गेम्स जैसे भी हो, जो भी जीते. यहां बताने का मकसद ये है कि इस गेम्स के बहाने रांची की तकदीर और तस्वीर दोनों ही बदल रही है. रांची के चौक पर पहुंचने पर रांची ट्रेफिक पुलिस के स्मार्ट बन चुके जवानों की फुर्ती आपको खुद ब खुद अनुशासित कर देगी. पहले की रांची से जो लोग रूबरू होंगे, वे लोग अगर रांची आएं, तो उन्हें यहां की फिजा बदली-बदली सी लगेगी.
 

रांची की  ट्रैफिक भी काफी बेहतर हो गयी है. जाम नहीं लग रहा. सड़कें खाली-खाली सी नजर आती हैं. यहां से कुछ दूरी पर होटवार में बने खेलगांव में जैसा इंफ्रास्ट्रक्चर नजर आ रहा है, उससे आनेवाले समय में कम से कम झारखंड के स्पोर्ट्स को फायदा ही फायदा होगा. एक बात जो सबसे बड़ी है, वह ये है कि फिनांसियल और टाइम मैनेजमेंट का जो मामला है, उसमें हमारा देश और हमारे लोग काफी पीछे हैं. हम लोग किसी भी काम को समय पर पूरा नहीं कर पाते हैं. इसी खेल को अगर २००९ तक में पूरा कर लिया जाता है, तो हम लोग दो साल आगे रहते.

हमारे जिस प्लेयर ने भी कुछ भी कर दिखाया है, तो उन्होंने उसे व्यक्तिगत स्तर पर कोशिश से पाया है. उसमें हमारी सरकार की ओर से दी गयी सहायता की कम से कम भूमिका रही है. ऐसे में जब कोई सफलता मिलती है, तो हमारे स्पोर्ट्स अफसर उसी के नाम पर गुलाल उड़ाने लगते हैं. ऐसे में पूरा मामला मजाकिया लगने लगता है. ज्यादा दिन नहीं हुआ है, जब झारखंड में हवा में तैराकी कराने के मामले ने झारखंड को पूरी दुनिया में हंसी का पात्र बना दिया था. वैसे छउआ, नेशनल गेम्स का मस्कट, गजब का जादू ढा रहा है. उम्मीद है कि कल की ओपनिंग सेरमनी बेहतर होगी.

Tuesday, August 3, 2010

ये झारखंड है भाई!

कोई आदमी कितना पैसा चाहता है. किसी की चाहत कितनी हो सकती है. ये हम-आप नहीं बता सकते, लेकिन आईबीएन-७ और कोबरा पोस्ट के स्टिंग ने पानी का पानी साफ कर दिया है. झारखंड के विधायक पचास लाख से लेकर एक करोड़ तक की चाहत रखते हैं. अब ये खबरें कोई रिएक्शन क्रिएट नहीं करते. कहीं भी नेशनल लेवल के चैनलों में सिवाय आईबीएन-७ के इस खबर को नहीं चलाया जा रहा था.

सिस्टम का टूटना कोई एक दिन में नहीं होता. आज झारखंड सबसे भ्रष्ट राज्यों में से एक है. जिस राज्य में दस साल में छह से ज्यादा बार सीएम ही बदले गए हों, वहां की स्थिति की कल्पना की जा सकती है. आज झारखंड राज्य का कोई माई-बाप नहीं है. हम किसी योजना को लेकर ये नहीं कह सकते हैं कि हमारे राज्य में ये योजना पूरी हो जाएगी.दूसरे राज्य सारी आफतों के बाद भी विकास के रास्ते पर धीरे-धीरे बढ़ते जा रहे हैं, लेकिन यहां ऐसा कुछ भी नहीं है. सही में कहें, तो हमें त्रासदी की सिवाय यहां कुछ नजर नही आता.

विधायक लोग भी क्या करें, उनके अधिकार राजनीतिक अस्थिरता की भेंट चढ़ जा रहे हैं.आज के दौर में झारखंड में हर विधायक सीएम बनना चाहता है. चाहे वह कहीं से भी किसी भी स्तर का हो. राजनीतिक हलके में बेचैनी नजर नहीं आती. सबकुछ बेशर्मी की भेंट चढ़ चुका है. आदिवासी सीएम के नाम पर स्टेट में सीएम की कुर्सी का बंटाधार हो चुका है. चयन के वक्त योग्य व्यक्ति दरकिनार कर दिए जाते हैं. आदिवासियों में भी योग्य नेता होंगे. लेकिन उन योग्य नेताओं को उभरने का मौका नहीं मिलता.

ये एक ऐसा राज्य है, जहां के राजनीतिकों को चार-पांच को छोड़ कर पढ़ने का कोई शौक नहीं. वे जानकारी के नाम पर शून्य नजर आते हैं. घोटालों की राशि की जब बात आती है, तो पूरे स्टेट का बजट उस घोटाले के सामने फीका नजर आता है. यहां के लोगों ने भी मान लिया है कि हमारे नेता ऐसे ही हैं. जब झारखंड बना था, तो यहां सरप्लस बजट था. यानी कि बजट से ज्यादा आमदनी थी. आज इसका बजट घाटा डराता है.

 हर क्षेत्र में विफलता है. ये राज्य आज तक बिजली का एक पावर प्लांट तक नहीं लगा सका है. इसके एनएच में जर्जर पुल और खराब सड़कें आती हैं. रांची सहित आधे से ज्यादा राज्य का हिस्सा नक्सलियों के प्रभाव में है. अगर हम अधकिरायों की बातें करें, तो उनके अधिकार क्षेत्र की भी सीमाएं हैं. वे क्या करें. कहीं भी बिना पुलिस के आना-जाना नहीं कर सकते हैं. अधिकारियों को चुननेवाली जेपीएससी को प्राइवेट एजेंसी की तरह यूज किया गया. अब निगरानी इसकी जांच कर रही है और दोषियों को निशाने पर ले रही है.

 न तो यहां नौकरी पक्की है, न उद्योग और न ढंग की राजनीति ही. बिहार को गरियानेवाले अब झारखंड को गरियाते नजर आते हैं. शायद बाहर के राज्यों में झारखंड के नाम पर लोग हंसते भी होंगे. पता नहीं, इस राज्य का स्तर और कितना गिरेगा.

Tuesday, May 11, 2010

झारखंड में बीपीएल पोलिटिक्स पोलिटिक्स...

अगर एक पाठक या नागरिक के तौर पर आप हमसे झारखंड की राजनीति के बारे में पूछियेगा, तो हाथ जोड़ दूंगा। भैया बिहार की राजनीति तो समझ में आती है, लेकिन यहां झारखंड में बीपीएल पोलिटिक्स यानी बिन पेंदी का लोटा पोलिटिक्स को देखकर मन हाय-हाय करता है। क्षण में पलटी और क्षण में अलटीवाला सिस्टम मुंह चिढ़ाता है। या तो यहां के राजनीतिकों को लज्जा नाम की चीज खत्म हो गयी है या उनके अंदर इतनी कूवत नहीं बची है कि खुद के बल पर सिस्टम में आगे बढ़ें। ये राज्य आदिवासी और गैर-आदिवासी मुख्यमंत्री के नाम पर ऐसी जगह पर खड़ा हो गया है, जहां से कोई विकास की धारा निकलती नहीं दिखती है। कोई ऐसी किरण नहीं दिखाई देती है कि विकास का रास्ता दिखाई दे। एक तरह हड़ताल करते कर्मचारी हैं, तो दूसरी तरफ है लचर होती कानून व्यवस्था। झामुमो एक पार्टी के तौर पर विश्वास खो रही है और अंतरविरोध के स्वर से उसकी साख लगातार कमजोर हो रही है। वहीं भाजपा जैसी पार्टी अपनी लज्जा को सार्वजनिक तौर पर चौराहे पर नीलाम कर रही है। इस देश ने भाजपा से एक बड़ी पार्टी के रूप में कांग्रेस का विकल्प बनने की अपेक्षा की थी। लेकिन सत्ता की लालच ने उनके पांव को भटकाव की दिशा में ठेल दिया है। बेशर्म हो गये भाजपा नेता गडकरी के नेतृत्व में ऐसा गुल खिलायेंगे, ये आशा नहीं थी। आडवाणी सरदार पटेल बनने के चक्कर में ऐसे चक्कर में फंस गये हैं कि उनके खुद के अस्तित्व पर सवालिया निशान लग गया है। हमें तो कम से कम मायावती की राजनीति अच्छी लगती है। वे जो करती हैं, डंके की चोट पर करती हैं। उनकी राय, उनकी कथनी में फर्क मामूली होता है। झारखंड में जो हो रहा है, वह शर्मनाक है। करीब तीन सप्ताह से पूरी व्यवस्था एक सक्षम सरकार के इंतजार में पंगु हो गयी है। यहां की जनता खुद के भविष्य के इस तरह खात्मे की ओर बढ़ता देखकर कलप रही है। न जाने आगे क्या हो?
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