मेरे लिये पत्रकारिता आज एक प्रोफेशन यानी कमाने-खाने का जरिया है। हर पेशे या कहें प्रोफेशन में आपको एक चीज मिल जाएगी कि जानकारी के आधार पर वर्गीकरण किया जाता है। यूं कहें, जानकारी के आधार पर लोग बिना बताये दावा कर सकते हैं कि वे किसी और से ज्यादा जानकार हैं। लेकिन पत्रकारिता की दुनिया निराली है। हर पत्रकार पहले तो खुद को सूचनाओं का भंडार होने का दावा करता है, दूसरा खुद को किसी रुतबेवाले से कम नहीं समझता। भले ही किसी खास विषय में एबीसी़डी न आती हो, लेकिन राय जरूर देगा। एक्सपर्ट एडवाइस या यूं कहें त्वरित टिप्पणी देने में पत्रकारों का सानी नहीं। बाहर की दुनिया सोचती होगी कि बौद्धिक जमात के ये सदस्य रात-दिन समाचारों में दिमाग खपाते होंगे, लेकिन काफी कम लोगों को मालूम है कि सत्तर फीसदी पत्रकार भाई अपने कार्यक्षेत्र के अलावा दूसरे विषय में जानकारी लेने के लिए कष्ट भी नहीं उठाते। हां आधी जानकारी लेकर यहां-वहां बयानबाजी देते जरूर मिल जायेंगे। टीवी पर हिन्दी की जो भद्द क्षेत्रीय चैनलों पर पिट रही है, उसका कुछ कह नहीं सकते। समाचार पत्रों में भाषा वाह-वाह। जो पत्रकार थोड़े बुजुर्ग हो गये हैं। उनका दावा रहता है कि वे ज्यादा जानकार हैं। वे ज्यादा जानते हैं। भले ही उनसे जूनियर उनसे लाख गुना जानकार हो। जब लोग कहते हैं कि पत्रकारिता संक्रमण काल से गुजर रही है, तो लगता है कि ये स्वर्णिम काल आया कब था। हमें तो हिन्दी पत्रकारिता में जानकारी हासिल करने के लिए वैसी जद्दोजहद कभी दिखाई नहीं पड़ी। भले ही एक पत्रकार अपने बीट का मास्टर हो सकता है, लेकिन अगर किसी और क्षेत्र में उससे दखलंदाजी की उम्मीद की जाये, तो वे बंगले झांकने लगेंगे, जबकि दूसरे प्रोफेशन में लोग जानकारी या बुद्धि क्षमता बढ़ाने के लिए लगातार प्रयासरत दिखेंगे। समय की कमी, काम का दबाव जैसे काफी लब्ज इस पत्रकारिता की नौकरी के लिए इस्तेमाल किये जा सकते हैं। लेकिन ये आज किस चीज में नहीं हैं। जब आज का नया पत्रकार कोर्स कर व्यावहारिक दुनिया में आता है, तो सिर पीट लेता है। न तो उसे इंटरनेट की जानकारी दी जाती है और शब्द भंडार बढ़ाने या भाषाई संस्कार को जिंदा रखने की पहल करने के लिए कहा जाता है। इसके अलावा अखबार किसी विषयवस्तु पर गंभीर बहस की अपेक्षा सिर्फ समाचारों को परोसने को लेकर संजीदा हैं। जब बहस को मार दिया जा रहा है। खबरों को लेकर वैसा पैनापन नहीं दिखता, तो पत्रकारिता एक रूटीन वर्क के अलावा और कुछ नहीं। यही कारण है कि इंटरनेट सेवी व्यक्ति अखबारों और चैनलों से इतर ब्लाग या वेबसाइट पर अपनी बौद्धिक खुराक खोजता फिरता है।
इस हालिया दर्द को कैसे बयां करें, समझ में नहीं आता। दंतेवाड़ा जैसा नासूर जब बढ़ता जा रहा हो, तो भी आप कहीं से गंभीर बहस के लिए कोई अपेक्षा नहीं कर सकते। बुनियादी जानकारी से इतर जब अखबार सिर्फ प्रोडक्ट बन जायें और चैनल टीआरपी के खिलौने तो चिंतित होना लाजिमी है। ऊपर से पत्रकार बिरादरी के स्वयंभु जानकार होने के दावे से बैलून के फटने का डर ज्यादा सता रहा है। धन्य है ये पत्रकार बिरादरी और .....
Tuesday, May 18, 2010
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2 comments:
प्रभात जी, कौन आत्मावलोकन करना चाहता है और क्यों करे... इस सबसे उसे हासिल क्या है... जब सौ रुपये में दाल, डाक्टर की कन्सलटेशन फीस दो सौ रुपये, बच्चे की स्कूल फीस दो हजार रुपये महीना हो और दो कमरों का सस्ता मकान अठारह बीस लाख में हों तो कोई ससुरा कहां तक ईमान, सेवा में लगा रहेगा...
यही सच्चाई है. पत्रकारिता आज कमाने खाने की चीज है बस.
सभी यही कह्ते है. तब ऎसे समय मे राख के अंबार में चिंगारी भी है. और आग लगाने के लिए चिंगारी काफ़ी है.
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