Monday, May 31, 2010
फिर से एक विवेकानंद का पैदा होना जरूरी है...
जब से रविशंकर पर हमले की खबर देखी, तो मीडिया के लोग चिंतित हो गए। इतने बड़े आदमी पर हमले की खबर थी। सही मायने में कहें, तो चिंतित होना लाजिमी है, लेकिन इतनी चिंता आम लोगों के लिए कभी नहीं होती मीडिया में। एक चैनल में कुछ संत लोग बता रहे थे कि हम लोग ही इस देश के समाज को सही दिशा देनेवाले हैं। हमें तो इस त्रासदी भरे स्टेटमेंट पर ही हंसी आने लगी कि वैचारिक रूप से क्या इस देश का आम आदमी इतना दरिद्र हो गया है कि उसे इन संतों का सहारा ही चाहिए। सही में कहूं, तो मुझे आज तक किसी संत ने प्रभावित नहीं किया। कोई कैसे किसी के जीवन को प्रभावित कर सकता है। संतों के समूह के पीछे जो ऊर्जा खर्च होती है और लोग दीवाने बने फिरते हैं, वे मानव श्रम के एक बड़े हिस्से को खा जाते हैं। जिस कॉरपोरेट स्टाइल में पूरी गतिविधियों को अमली जामा पहनाया जाता है, उसमें सामान्य आमदनी वाला शख्स मात्र एक देखनहार बनकर ही संतोष कर सकता है। पहले के जो संत हुए, वे त्याग के बूते पूजनीय हुए। उन्हें अपने प्रचार के लिए आर्गनाइज्ड एफर्ट की जरूरत नहीं महसूस हुई। आज के संत आर्गनाइज्ड सेक्टर के सीइओ के तौर पर काम करते हैं। हमें तो ये देश और यहां के लोग वैचारिक रूप से गरीब लगते हैं। जब हम जानते हैं कि सच बोलना चाहिए, झूठ नहीं। हमें बेहतर काम करना चाहिए और वह भी ईमानदारी से, तब भी हम गलत काम करते हैं और झूठ बोलते हैं। भ्रष्टाचार का कीड़ा देश की नस में खून बनकर दौड़ रहा है। वैसे में सिर्फ व्यक्तिगत जीवन को चिंता मुक्त करने का संदेश फैलाया जा रहा है। आप इस समय किसी भी ऐसे संस्थान या व्यक्ति के बारे में पूरी तरह से दावा नहीं कर सकते हैं कि वह निःस्वार्थ भाव से बिना किसी चाहत के कोई संगठन खड़ा कर रहा है या कोई काम कर रहा है। आखिर वह कौन सा कारण है कि आर्थिक सुधार के इस काल में ही ढेर सारे संत पैदा हो गये हैं। रोज कोई न कोई उपदेशक पैदा हो जाता है। इन्हीं झूठे संत की आड़ में तमाम तरह की गलत गतिविधियां संचालित होती हैं और इसमें भी तथाकथित समाज के सबसे उम्दा चेहरे फॉलोवर बने दिखते हैं। मुझे इन संतों को मौखिक कसरतों से अलग व्यावहारिक दुनिया में कभी किसी भिखारी को खाना खिलाते या कड़ी धूप में चलकर बच्चों और गरीबों के बीच छाता बांटते नहीं देखा। एसी कमरे में बैठकर वेदों-पुराणों की चर्चा करते हुए संतई करना सबसे आसान काम है। इस देश को एक विवेकानंद की जरूरत है, जिसकी आत्मा इस देश की सड़ती व्यवस्था पर विलाप करे और लोगों को जगाए। साथ ही इस देश में फिर से पदयात्रा कर एक मुहिम छेड़े,. जिससे उपभोक्तावादी मानसिकता के ऊपर उठकर देशवासी सही में जीवन उत्थान की बातें करें। सबसे पहले तो धर्म की व्याख्या का होना जरूरी है। धर्म क्या है, इसे बताना जरूरी है। कर्म को छोड़कर उस परमात्मा के नाम पर रात-दिन जाप करते रहना ही धर्म है या गरीबों की भूख मिटाने के लिए ऐसी व्यवस्था का निर्माण करना धर्म है, जहां से एक रास्ता निकले। संतों को सबसे पहले खुद के संत होने की उपाधि को त्याग देना चाहिए। खुद को महिमामंडित कर ही सबसे पहले धर्म की हत्या कर दी जाती है। क्यों कोई खुद को बतौर इंसान सर्वश्रेष्ठ घोषित करे। संत या ईश्वर जनसमुदाय के बीच उपस्थित होकर ही अलग धार पैदा कर सकता है। राम ने १४ वर्ष में वनवास में बीता दिये और कृष्ण अर्जुन के सारथी बनकर युद्ध में साथ निभाते रहे। संतों को ऊंची कुर्सी पर नहीं, बल्कि भक्तों के बीच बैठकर सही व्याख्या की प्रस्तुति करनी चाहिए। संतई की आड़ में ये देश मानव श्रम के एक बड़े हिस्से को खो दे रहा है। हमारा तो ये मानना है कि जिस दिन ये संतई की भूख हर किसी के दिमाग पर हावी हो जाएगी, उस दिन ये देश टूटन के कगार पर होगा। जिंदगी गुरु के बिना नहीं चल सकती। लेकिन गुरु को आर्थिक लालच और उत्थान के सपनेसे ऊपर उठना होगा। अगर कोई संत इसे पढ़ रहे होंगे, तो वे हमें माफ जरूर कर देंगे, क्योंकि माफी तो संत ही देते हैं। वैसे हमारा इरादा किसी को ठेस पहुंचाना नहीं है।
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8 comments:
आपकी बात से सहमत हैं।
बात तो आपकी सही है गोपाल जी। मैं यहां टीवी की बात नहीं करूंगा, उसे तो मसाला चाहिए। मिल गया फिर क्या था। एंगल बदल बदल कर स्टोरी तो चलेगी ही। हां एक बात जरूर है कि आप कह रहे हैं कि आपको अभी तक किसी साधु ने प्रभावित नहीं किया हो सकता है आप सही हों। लेकिन एक बात तो माननी पड़ेगी कि सभी साधु गलत नहीं होते। कुछ होते हैं सही है और वही सबका सत्यानाश कर देते हैं। मेरा तो यही मानना है। वैसे पोस्ट अच्छी है।
http://udbhavna.blogspot.com/
मन की माया।
आज के समय में कैसे पदयात्रा कर कोई व्यक्ति एक सौ सत्रह करोड़ लोगों से मिल सकता है.. निश्चित रूप से मीडिया एक अच्छा साधन है करोड़ों लोगों को प्रभावित करने का... विवेकानन्द जी को पहचानेंगे कैसे... फिर अगर उन्होंने भी आधुनिक साधनों का सहारा लिया तो...
बिल्कुल सहमत हूँ आपसे
मेरे भाई अगर आज स्वामी जी भी होते तो आप जैसे लोग उन्हें भी इसी तरह अविस्वास भरी निगाहों से देखते।इसमें दोश न आपका है न हमारा वस ये असर है मैकाले की उस शिक्षा निती का जिसे लागू करते वक्त उसने अपने पिता को पत्र लिखकर बताया था कि 100 वर्ष के वाद भारत में पैदा होने वाले लोग सकल से भारतीय होंगे पर अक्कल से अंग्रेज ।
श्री श्री रविशंकर जी आरम्भ में छोटे थे और अब बड़े हैं और उन्होंने कुछ चीज़ों को पेटेंट करवा लिया है । इस तरह की बातों से तो वे नाक़ाबिले एतबार नहीं ठहरते। आज तक मुझे उनके बारे में जितना मालूम है, उसमें उनकी सादगी सबसे ऊपर है। Shanti के बारे में भी उनकी कोशिशों को सब जानते हैं। सिमी के लोग हों या सनातन संस्था के, उनसे बात करने वाला और उन्हें समझाने बुझाने वाला कोई तो होना ही चाहिए। वे खुद तो उनकी किसी गतिविधि में लिप्त नहीं हैं न ? हमें मामूली सी बातों पर अपने साफ़ छवि के लोगों पर इस तरह टिप्पणी नहीं करनी चाहिए।
बहुत सुन्दर, सही बात
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