आज-कल एक फैशन चल पड़ा है कि आप धारा के विपरीत बात करेंगे, तो आपकी पूछ होगी.किसी अखबार के पहले पन्ने पर क्या जाए, ये तय करने का अधिकार संपादक का होता है. इसमें दूसरा कोई व्यक्ति दखल नहीं दे सकता. लेकिन जब कोई व्यक्ति अपने खुद के पेशे को गाली दे, तो मन खट्टा हो जाता है. पत्रकारिता सिर्फ पहले पन्ने से ही नहीं होती और न ही २४ पेज पर पत्रकारिता के लिहाज से सिर्फ खबरें ही होती हैं.
शुरू से बाजार ही तय करता आया है कि अखबार में क्या छपेगा. कोई पेशा किस कदर बेईमान हो रहा है, वह भी बाजार के ही हिस्से में आता है.पाठकों का टेस्ट क्यों बदल गया है? हम प्रिंट या इलेक्ट्रानिक मीडिया के लोग ट्रेंड बदलने का माद्दा क्यों नहीं रखते? हम तूफान से टकराने की बात करते हैं, लेकिन व्यक्तिगत स्तर पर कॉरपोरेट की मदद की आस रखते हैं. ऐसा क्यों?
यहीं से एक सवाल निकलता है कि आज की इस जटिल दुनिया में दूसरा गांधी क्यों नहीं पैदा हो रहा? ये इसलिए नहीं पैदा हो रहा है, क्योंकि आज के भारत में कर्म से ज्यादा बतकही पर जोर है. कभी किसी व्यक्ति को कड़े शब्द बोल कर दिल दुखाया जा सकता है, लेकिन अगर बेहतर कर्म किया जाए, तो उसके दिल को बदला जा सकता है.सेंथिया कोई मामूली घटना नहीं थी. लाशों के ढेर के दृश्य को छाप कर ही क्या अखबार को न्यूजी बनाया जा सकता है, ये एक बड़ा सवाल है. सवालों का अपना एक दायरा होता है. इसलिए ये सवाल अगर किसी सार्वजनिक मंच पर किया जाए, तो अपने पेशे की इज्जत का ख्याल रखना जरूरी है.
हमारे एक मित्र ने पत्रकारिता के मूल्यों को लेकर इस संदर्भ में सवाल दागे. हमने कमेंट किया नो कमेंट, जवाब था-जो तटस्थ हैं समय लिखेगा उनका भी अपराध. क्या इतिहास सिर्फ पक्ष लेकर गाली देने या क्रांति की बातों को करनेवालों को ही याद करता है. या जो तटस्थ हैं, वे सही में अपराधी होते हैं. अगर जानबूझ कर जानते हुए आप सही तथ्यों को पेश नहीं करते, तो वह अपराध है.
हमें याद रखना चाहिए कि मौन में बड़ी ताकत होती है. अगर आप मौन हैं, तो सौ सवालों का एक बार में जवाब दे सकते हैं. आज के दौर में अपराधी वे हैं, जो नमक तो कारपोरेट की खाते हैं, लेकिन बातें मिशनरी पत्रकारिता की करते हैं. खुद के दम पर पत्रकारिता करते हुए अगर ये बातें की जाएं, तो बातों में दम नजर आता है. नहीं तो सिर्फ भीड़ में कुछ अलग दिखाने की जुगत में बकबक से वेब पर प्रदूषण फैलने का खतरा ज्यादा नजर आता है. सही होगा कि आप-हम अपने मन को टटोलें. न कि खुद को एक काबिल पत्रकार होने का दावा प्रस्तुत करें.
काबिलियत मापने का पैमाना दुनिया के ऊपर छोड़ दें. अगर आप काबिल होंगे, तो प्रेमचंद सरीखा सम्मान पाएंगे, नहीं तो काल की गति में भुला दिए जाएंगे.पत्रकार होना एक गर्व का विषय हो सकता है. आज के पत्रकार कॉरपोरेट घरानों के मजबूत होने के कारण थोड़ी बहुत कमाई भी कर पा रहे हैं, नहीं तो उन्हें वह दौर भी नहीं भूलना चाहिए जब नौकरी को कायम रखने के लिए लगातार गिड़गिड़ाना पड़ता था. समय रहते हमें खुद के अंदर झांक कर गंदगी को बाहर निकाल फेंकना चाहिए.
अभी के हालात के लिए न तो कॉरपोरेट दोषी है और न ही पत्रकार जमात. दोषी हम सभी हैं, जिनके अंदर खुद के दम पर संघर्ष का माद्दा नहीं रहा.पत्रकार जमात आज के दौर में सबसे ज्यादा सुविधाभोगी और नौकरी के लिए लालायित रहनेवाला जमात है. ऐसे में जब खुद हम स्वार्थ में अंधे हैं, तो सोशल वैल्यू की बात करनेवाले हम कौन होते हैं.
Tuesday, July 20, 2010
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1 comment:
विचारणीय व सामयिक प्रश्न उठाये हैं। प्रतिभायें अखबार के अन्य पन्नों में सिमट कर रह गयीं हैं।
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