Sunday, October 3, 2010

कलमाडी साहब की सौ खता को माफ करने का दिल करता है.

जब मीडिया के तमाम लोग सीडब्ल्यूजी की बखिया उधेड़ रहे थे, तो मन की तड़प को जुबां पर नहीं ला पा रहा था. लेकिन आयोजन की भव्यता ने हमारे मुंह पर कम से कम अभी के लिए ताले लगा दिए हैं. सौ दिन बाद क्या स्थिति होगी मैं नहीं जानता. अपने देश में सबसे आसान चीज मुझे नजर आती है, वह है किसी की मीन मेख निकालना या गरिया देना. वैसे ही जैसे होली के खेल में किसी के मुंह पर बुरा न मानो होली है, कह कर कीचड़ मल देते हैं.
 इलेक्ट्रानिक मीडिया ने सांप मिलने से लेकर वहां पर पानी के टपकते रहने की मीन मेख निकाली. वैसे एक सज्जन को ये कहते हुए पाया कि कलमाडी साहब ने यदि मीडिया को दो सौ करोड़ का एडवर्टाइजमेंट दे दिया होता, तो इतनी बेइज्जती नहीं होती. अब कलमाडी साहब भी समय के साथ शहादत के पंख लगाकर गुमनामी के जंगल में चले जाएंगे. लेकिन यकीं मानिये, इस गेम ने एक कहानी जरूर दी है कि अगली बार से इस देश की मीडिया पर हुक्मरान जरूर से नजर-ए-इनायत करके रखेंगे. अपने देश में कामनवेल्थ गेम का शुरुआत में ही जो हाल किया गया, उससे खून के आंसू निकलते रहे.
 वैसे किसी भी चीज में सफलता के लिए टीम वर्क की जरूरत होती है. उस टीम में इस देश की मीडिया भी आती है. क्या ये संभव नहीं था कि पूरे आयोजन के शुरू होने के समय से ही मीडिया हर चीज पर पैनी निगाह रखता. मीडिया के लोग एक टीम के रूप में काम करते. कलमा़डी साहब भी सलाह-मश्विरा करते हुए परिणाम की ओर धीरे-धीरे चलते. काफी कुछ किया जा सकता था. कलमाडी साहब से यहीं चूक हो गयी कि उन्होंने मीडिया को टटोला ही नहीं. या तो वे इस मुगालते में रहे कि आइ एम द बास. या फिर मीडिया ने शुरू से ही उन्हें दुश्मन नंबर वन मान लिया. मामला चाहे जो भी हो, आगाज शानदार रहा. बस अब हमारे खिलाड़ी बाजी पर बाजी मारते रहें और हम तालियां बजाते रहें.
कभी-कभी कलमाडी साहब की सौ खता को माफ करने का दिल करता है. आज इसी बहाने ही सही.

1 comment:

शरद कोकास said...

और सौ के बाद ........?

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