आज-कल एक असीब से द्वंद्व से गुजर रहा हूं. ये द्वंद्व शायद उन तमाम लोगों के मन में भी जरूर मौजूद होगी, जो सामाजिक सरोकारों के बीच मरते समाज को लेकर चिंतित हैं. मेरे लिये, मेरे सहकर्मियों के लिए और मेरे तमाम साथियों के लिए ये द्वंद्व रुलाने वाला है. साथ ही ये चिंता देनेवाला भी है कि हमारा समाज सर्वाइवल आफ द फिटेस्ट की तर्ज पर काम कर रहा है. दो-तीन दिन बीते होंगे, एक खबर आयी कि रांची में एक आईएफएस की मौत हो गयी. उनकी दिमागी हालत भी पिछले कई सालों से खराब थी. सबसे जो गौर करनेवाली बात थी, वो ये थी पत्नी उन्हें छोड़ मुंबई में रहती हैं. ऐसे ही कुछ दिन पहले रांची की एक प्रोफेसर की तन्हाई ने जान ले ली. उनके दोनों बेटे रांची से बाहर बेहतर नौकरी में हैं. प्रोफेसर भी नौकरी में थीं. कुछ साल और बचे थे. फिनांसियल तौर पर भी कोई प्राब्लम नहीं था. इन सारे हालात के बीच भी मौत को गले लगाना मुनासिब समझा. यहां गौर करनेवाली बात ये है कि यहां पर दोनों व्यक्ति बौद्धिक स्तर पर जीनियस की भूमिका में थे. सोसाइटी के ऐसे तबके से संबंध रखते हैं , जहां से सोसाइटी के लिए बदलाव की दिशा तय होती है. लेकिन पारिवारिक स्तर पर वे एकाकी हो गए थे. जिंदगी के कठिनतम दौर में उन्हें देखनेवाला कोई नहीं था. ज्यादा दिन नहीं गुजरे राम टोप्पो को लेकर फेसबुक पर अपील की. कुछ लोग मदद को आए, लेकिन जैसे कमेंट्स की उम्मीद थी, वैसी न आयी. मैं यहां आज के सिस्टम को गाली नहीं दूंगा, क्योंकि ये सिस्टम हमारी ही बनाया हुआ है. मेरे मन से गाली उस समाज के लिए निकल रही है, जिसमें मैं रहता हूं. मैं जिस समाज में रहता हूं, वहां जिस रफ्तार से स्वकेंद्रित होने की ट्रेंड चल पड़ा है, उस ट्रेंड को गाली देने की इच्छा होती है. हमारे युवा साथी अपने ही संसार में इतने मस्त हैं कि उन्हें ये देखने की फुर्सत नहीं मिल रही है कि आसपास क्या हो रहा है. रांची जैसा शहर जो पहले अपनी हरियाली के लिए जाना जाता था, आज मरते समाज के शहर के रूप में अपनी पहचान बना रहा है. मुझे इस शहर में बेगानेपन का अहसास घरने लगा है. ये शहर पहले अपना सा लगता था. सुजाता से लेकर अल्बर्ट एक्का चौक तक में २० साल पहले उतना दबाव नहीं महसूस करता था, जितना आज महसूस करता हूं. तेज रफ्तार से भागता शहर डरा रहा है. इसके फैलाव का अंदाजा भी भयभीत कर देता है. लेकिन इस फैलाव ने जिस सूनापन को बढ़ाया है, उससे मन की तड़प बढ़ती जा रही है.
Sunday, February 20, 2011
मुझे इस शहर में बेगानेपन का अहसास घरने लगा है.
आज-कल एक असीब से द्वंद्व से गुजर रहा हूं. ये द्वंद्व शायद उन तमाम लोगों के मन में भी जरूर मौजूद होगी, जो सामाजिक सरोकारों के बीच मरते समाज को लेकर चिंतित हैं. मेरे लिये, मेरे सहकर्मियों के लिए और मेरे तमाम साथियों के लिए ये द्वंद्व रुलाने वाला है. साथ ही ये चिंता देनेवाला भी है कि हमारा समाज सर्वाइवल आफ द फिटेस्ट की तर्ज पर काम कर रहा है. दो-तीन दिन बीते होंगे, एक खबर आयी कि रांची में एक आईएफएस की मौत हो गयी. उनकी दिमागी हालत भी पिछले कई सालों से खराब थी. सबसे जो गौर करनेवाली बात थी, वो ये थी पत्नी उन्हें छोड़ मुंबई में रहती हैं. ऐसे ही कुछ दिन पहले रांची की एक प्रोफेसर की तन्हाई ने जान ले ली. उनके दोनों बेटे रांची से बाहर बेहतर नौकरी में हैं. प्रोफेसर भी नौकरी में थीं. कुछ साल और बचे थे. फिनांसियल तौर पर भी कोई प्राब्लम नहीं था. इन सारे हालात के बीच भी मौत को गले लगाना मुनासिब समझा. यहां गौर करनेवाली बात ये है कि यहां पर दोनों व्यक्ति बौद्धिक स्तर पर जीनियस की भूमिका में थे. सोसाइटी के ऐसे तबके से संबंध रखते हैं , जहां से सोसाइटी के लिए बदलाव की दिशा तय होती है. लेकिन पारिवारिक स्तर पर वे एकाकी हो गए थे. जिंदगी के कठिनतम दौर में उन्हें देखनेवाला कोई नहीं था. ज्यादा दिन नहीं गुजरे राम टोप्पो को लेकर फेसबुक पर अपील की. कुछ लोग मदद को आए, लेकिन जैसे कमेंट्स की उम्मीद थी, वैसी न आयी. मैं यहां आज के सिस्टम को गाली नहीं दूंगा, क्योंकि ये सिस्टम हमारी ही बनाया हुआ है. मेरे मन से गाली उस समाज के लिए निकल रही है, जिसमें मैं रहता हूं. मैं जिस समाज में रहता हूं, वहां जिस रफ्तार से स्वकेंद्रित होने की ट्रेंड चल पड़ा है, उस ट्रेंड को गाली देने की इच्छा होती है. हमारे युवा साथी अपने ही संसार में इतने मस्त हैं कि उन्हें ये देखने की फुर्सत नहीं मिल रही है कि आसपास क्या हो रहा है. रांची जैसा शहर जो पहले अपनी हरियाली के लिए जाना जाता था, आज मरते समाज के शहर के रूप में अपनी पहचान बना रहा है. मुझे इस शहर में बेगानेपन का अहसास घरने लगा है. ये शहर पहले अपना सा लगता था. सुजाता से लेकर अल्बर्ट एक्का चौक तक में २० साल पहले उतना दबाव नहीं महसूस करता था, जितना आज महसूस करता हूं. तेज रफ्तार से भागता शहर डरा रहा है. इसके फैलाव का अंदाजा भी भयभीत कर देता है. लेकिन इस फैलाव ने जिस सूनापन को बढ़ाया है, उससे मन की तड़प बढ़ती जा रही है.
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5 comments:
font badaa kijiye..
और मौसम कितना बदल गया इस मैदानी जैसे हिल स्टेशन का.
आपकी रचनात्मक ,खूबसूरत और भावमयी
प्रस्तुति भी कल के चर्चा मंच का आकर्षण बनी है
कल (21-2-2011) के चर्चा मंच पर अपनी पोस्ट
देखियेगा और अपने विचारों से चर्चामंच पर आकर
अवगत कराइयेगा और हमारा हौसला बढाइयेगा।
http://charchamanch.blogspot.com/
शहरी क्षेत्रों के विकास के साथ रिश्तों की गर्माहट सिकुड़ने लगी है ..!
एकांत घातक होता है जीवन के लिये।
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